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________________ होनेपर वे आत्माके साथ किस प्रकारके स्पर्शको ( बन्धको ) प्राप्त हों यह कार्य कषायका है। कषायके कारण ही उनके स्पर्शकी हीनाधिकता और स्पर्शमें तारतम्य व आकार निश्चित होता है जिसे क्रमसे स्थिति और अनुभाग कहा जाता है। इस प्रकार अनुभागका ज्ञान हो जानेषर वह किस क्रमसे रहता है इस को बतलानेके लिए स्थानोंका निरूपण किया गया है। स्थान तीन प्रकारके हैं -बन्धसमुत्पत्तिकस्थान, हतसमुत्पत्तिकस्थान और हतहतसमुत्पत्तिकस्थान । बन्धके समय जो अनुभागको क्रमिक रचना होती है उस सबको बन्धसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं। तथा सत्तामें स्थित अनुभागका घात होकर जो स्थान उत्पन्न होते हैं वे यदि बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंके समान होते हैं तो उन्हें भी बन्धसमुत्पत्तिक स्थान कहते हैं। किन्तु जो स्थान वातसे उत्पन्न होकर बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंसे भिन्न होते हैं उन्हें हतसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं । तथा इन हतसमुत्पत्तिकस्थानोंका भी घात होकर जो अन्य स्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें हतहतसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं। इनमें बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे थोड़े हैं। हतसमुत्पत्तिकस्थान इनसे असंख्यातगुणे हैं और हतहतसमुत्पत्तिकस्थान इनसे भी असंख्यातगुणे हैं। इनका विशेष ऊहापोह मूलमें किया ही है, इसलिए वहांसे जान लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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