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________________ २२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ३५१. परिमाणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सयं चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण। ओघेण छब्बीसं पयडीणमुक्कस्साणुभागविहत्तिया केत्तिया? असंखेज्जा । अणुकस्साणुभागविहत्तिया दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता। सम्मत्तसम्मामिच्छताणमुक्कस्साणुभागविहत्तिया दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा । अणुक. संखेज्जा । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अणुक्कस्साणु० णत्थि ।। ३५२. आदेसेण रइएसु छब्बीसं पयडीणमुक्कस्साणुक्कस्साणु० के० ? असंखेज्जा । सम्मत्त० ओघं । एवं पढमपुढवि-पंचिंदियतिरिवख-पंचितिरि०पज०-देवसोहम्मादि जाव अवराइद ति। एवं विदियादि जाव सत्तमि ति। णवरि सम्मत्त. सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं जोणिणी-पंचिंदियतिरिक्ख० [ अपजत्त-] मणुसअपज्ज०भवण-वाण-जोदिसिए ति । मणुस्साणं णेरइयभंगो । णवरि सम्मामि० ओघं । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि सव्वपयडीणमुक्क० अणुक्क० संखेज्जा। एवं सव्वहसिद्धिदेवाणं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । $ ३५३. जहण्णए पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त०-अहक० ज० अज० दव्वपमाणेण केव? अणंता। सम्मत्त ०-सम्मामि० ज० ३५१. परिमाण दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तिर्यञ्चोंमे सम्यग्मिध्यात्वक अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले नहीं है। ६३५२ आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्वका ओघ की तरह भङ्ग जानना चाहिए। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमे जानना चाहिए। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्व की तरह है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें जानना चाहिए। सामान्य मनुष्योंमें नारकियों के समान भंग है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वमे श्रोध की तरह भङ्ग है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सब प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पयन्त लेजाना चाहिये। ९३५३, जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवद्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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