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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए पोसणं १०६ एइंदिएमु मोह० उक्कस्साणु० के० खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणुक्कस्साणु० सव्वलोगो । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमेइंदिय--सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं । सव्वविगलिंदिय--पंचिंदियअपज्ज०तसअपज्जताणं च पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज. उक्कस्साणुकस्साणुभाग० के० खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे भागो अह० चोदस० सव्वलोगो वा । एवं तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु०-सणिण त्ति । उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सम्भव है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहकर भी सब लोक कहा है। इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन ओघके समान सब लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्योंमें दोनों प्रकारका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र पञ्चन्द्रियतियञ्चअपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें ऐसे जीवोंके ही उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सम्भव है जो अनुभागका घात किये बिना इन पर्यायोंमें उत्पन्न हुए हैं। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक सम्भव नहीं है, अतः इन दोनों मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवोंमें और उनके अवान्तर भेदोंमें जो उनका अपना स्पर्शन है वह यहाँ दोनों विभक्तियोंकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है।
६१०६. एकेन्द्रियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपयाप्तकोंके जानना चाहिये । सब विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रियअपर्याप्त और त्रसअपर्याप्तकोंमे पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्तकोंके समान भंग है । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले पञ्चन्द्रियों
और पञ्चन्द्रियपर्याप्तकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदशनवाले और संज्ञी जीवों में स्पर्शन जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जो मनुष्य या तिर्यञ्च उत्कृष्ट अनुभागका बन्धकर तथा उसका घात किये बिना उक्त एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके उत्कृष्ट अनुभाग सम्भव है। ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है। किन्तु ऐसे एकेन्द्रियोंका अतीत स्पर्शन सब लोक है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है। इनमें अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है। विकलत्रय और त्रस अपर्याप्तकों काभङ्गपञ्च न्द्रियतियेञ्चअपयोप्तकोंके समान है यह भी स्पष्ट है। यों तो पञ्चेन्द्रिय और पञ्चल्टिय पर्याप्तकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, किन्तु विहारादिकी अपेक्षा इनका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा सब लोकप्रमाण बन जाता है, इसलिए इनमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पशन उक्त तीन प्रकारका कहा है। इसी प्रकार त्रस आदि जो शेष मार्गणाएं मूलमें गिनाई हैं उनमें भी यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। इन पञ्चन्द्रिय आदि मार्गणाओंमें मोहनीयके अनकल
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