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________________ गा० २२ } अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा ३८५ सिद्धाणमणंतिमभागो । कुदो ? उक्कस्सघादझवसाणहाणाणं पेक्खिद्ण तत्तो अणंतरदेहिमघादझवसाणहाणस्स अभव्वसिद्धिएहि अणंतगुणसिद्धाणमणंतभागमेत्तभागहारेण खंडिदे तत्थेगरखंडेण ऊणत्तादो। कदो अपुणरुतदा ? भिण्णभागहारेहि ओवट्टि जमाणहाणाणं सरिसत्ताभावादो। एवं तिचरिमाणुभागबंधहाणे वि धादिज्जमाणे तदियपरिवाडीए अणुभागघादज्झवसाणहाणमेत्ताणि अणुभागघादहाणाणि अपुणरुत्ताणि उप्पादेदव्याणि। एवं चदुचरिमाणुभागहाणप्पहुडि जाव हेहा रूवूणबहाणमेत्तपंचहाणिहाणाणं चरिमहाणे ति ताव घादिय हाणं पडि असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादहाणाणि अपुणरुत्ताणि उप्पादेदव्याणि | एवं रूवूणछटाणमेत्तअणुभागबंधहाणाणि अस्सियण एतियाणि चेव घादहाणाणि उप्पजति । पज्जवसाणाणुभागबंधहाणं घादिय सेसअहकव्वंकाणं विचालेसु घादहाणाणि किण्ण उप्पाइज्जति ? ण, एवंविहगुरूवएसाभावादो । जदि अहकव्वंकाणं विचाले चेव घादहाणाणमुप्पत्तिणियमो तो संखेजासंखेजाणुभागबंधहाणाणं घादेण ण होदव्वं ? ण, तेसु घादिज्जमाणेसु घादहाणाणि मोत्तण बंधहाणाणं समुप्पत्तीदो । घादेणुप्पण्णाणं कथं बंधहाणववएसो ? ण, बंधहाण समाधान-अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वृद्धिका भागहार है, क्योंकि उत्कृष्ट घाताध्यवसायस्थानकी अपेक्षा उससे अनन्तरवर्ती नीचेका घाताध्यवसायस्थान अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण भागहारका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आता है उतना कम है। शंका-यह अपुनरुक्त कैसे है ? समाधान-क्योंकि, भिन्न भिन्न भागहारोंके द्वारा अपवतनको प्राप्त होनेवाले स्थान समान नहीं हो सकते। इसी प्रकार त्रिचरम अनुभागबन्धस्थानका भी घात करने पर तीसरी परिपाटीसे अनुभागघाताध्यवसायस्थानोंकी संख्याके बराबर अपुनरुक्त अनुभागघातस्थान उत्पन्न करने चाहिये । इसी प्रकार चतुःचरम अनुभागस्थानसे लेकर एक कम पदस्थानमात्र पंव हानिस्थानोंके अन्तिम स्थान पर्यन्त घातिस्थानकी अपेक्षा असंख्यात लोक मात्र अपुनरुक्त घातस्थान उत्पन्न करने चाहिये। इस प्रकार एक कम षट्स्थानमात्र अनुभागवन्धस्थानोंकी अपेक्षा इतने ही घातस्थान उत्पन्न होते हैं। शंका-अन्तिम अनुभागबन्धस्थानका घात करके शेष अष्टांक और उर्वकके बीच में घातस्थान क्यों नहीं उत्पन्न किये जाते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि इस प्रकारका गुरुओंका उपदेश नहीं पाया जाता है ? शंका-यदि अष्टांक और उर्वकके बीच में ही घातस्थानोंकी उत्पत्तिका नियम है, तो संख्यात और असंख्यात अनुभागबन्धस्थानोंका घात नहीं होना चाहिये। समाधान-नहीं, क्योंकि उनका घात होनेपर घातस्थानोंकी उत्पत्ति न होकर बन्धस्थानोंकी उत्पत्ति होती है। शंका-जो स्थान घातसे उत्पन्न होते हैं उन्हें बन्धस्थान कैसे कहा जा सकता है ? ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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