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________________ २३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ जहण्णाणु० खेत्तं । अज० सव्वलोगो । णवरि अणंताणु० चउक्क० जहण्णाणु० लोग० असंखे०भागो अहचोद्द० देरणा । अज० सव्वलोगो । ६३६४. आदेसेण गैरएसु छब्बीसंपयडीणं जहएणाणु० खेत्तं । अज० लोग० असंखे०भागो छचोदसभागा देसूणा । पढमाए खे। विदियादि जाव सत्तिमि त्ति छब्बीसं पयडीणं जहण्णाणु ० खेनं । अज० लोग० असंखे०भागो एक-वे-तिएिणचचारि-पंच-छचोहसभागा देसूणा । सम्मन-सम्मामि० अजह० उक्कस्सभंगो । $ ३६५. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छत्त--बारसक०--णवणोक० जहरणाजहएणाणु० सव्वलोगो। सम्म० ज० खेत्तं । अज० लोग० असंखे०भागों सव्वलोगो का। एवं सम्मामि०। णवरि जहएणं णत्थि। अणंताणचउक्क० ज० लोग० असंखे०स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र की तरह है । अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्व लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क की जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भाग मेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्व लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-श्रोघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागवालो' का स्पर्शन सर्वलोक है, क्योंकि हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले एकेन्द्रिय जीवके उस पर्यायमें तथा जहाँ जहाँ वह जन्म लेता है उन उन पर्याया में जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है और उसको बढ़ा लेने पर अजघन्य अनुभागसत्कर्म होता है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागवालो का स्पर्शन उन्हींके उत्कृष्ट अनुभागवालो क स्पर्शनकी तरह है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ६३६४, आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें क्षेत्र की तरह स्पर्शन है। दूसरीसे सातवों पृथिवी तकके नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य अनु. भागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागोंमेंसे क्रमशः कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पाँच और छः भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन उत्कृष्ट की तरह है।। ३६५. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिबालोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रको तरह है। अजघन्य अनुभागविभक्ति मालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सम्यग्मि. थ्यात्वका स्पर्शन जानना चाहिए । इतना विशेष है कि यहाँ सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य अनुभागविभक्ति नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क की जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका सर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका १. ता. प्रतौ पयडीणं जहण्णाजहण्णापु० खेत इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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