SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ سے بی جے عر حر م م م سے بے ےہ وج ميمر مر . गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए अंतरं असंखे०भागो असंखेजासंखेजाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । अणुक्क० जहण्णुक्क० ओघं । अणाहारि० मोह० उक्कस्साणुकस्स० णत्थि अंतरं । । व एवमुक्कस्साणुभागंतराणुगमो समतो । ६ ७५. जहएणए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह० [जहण्णा-] जहण्णाणुभागविहतियाणं णत्थि अंतरं । एवं णिरयओघं पढमपुढवि-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस० देवोघं भवण०-वाण. सोहम्मादि जाव० सव्वदृसिद्धि त्ति। ७६. आदेसेण रइएसु विदियादि जाच सत्तमि ति मोह० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० सग-सगुक्कस्सहिदी देसूणा। अज० ज० अंतोमु०,उक्क० सग-सगुक्कस्सअन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग है, जो असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीकालके बराबर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। अनाहारियोंमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागको लेकर अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-शुक्ललेश्या, सबसम्यक्त्व, असंज्ञी और अनाहारक मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें अन्तरका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागका अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ७५. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और श्रादेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य नारकी, पहली पृथिवीके नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तियंञ्च, सब मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासी, व्यन्तर तथा सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणिके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है। उससे दूसरे समयमे उस जीवके मोहनीयका सर्वथा अभाव हो जाता है, अतः ओघसे जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं कहा है। आगे आदेशकी अपेक्षासे भी जिन जिन मागेणाओंमे उक्त अवस्थामें जघन्य अनुभाग होता है उनमे अन्तरकालका अभाव जानना चाहिये। जैसे कि तीन प्रकारके मनुष्योंमे । सामान्य नारकी, पहले नरक नारकी, सामान्य देव, नवनवासी और व्यन्तरोंमे जो हतसमुत्पत्तिककर्मवाला असंज्ञी पञ्चन्द्रिय जन्म लेता है उसके तब तक जघन्य अनुभागकी सत्ता रहती है जब तक वह उसे बढ़ाता नहीं है। इसी प्रकार जो हतसमुत्पत्तिककर्मवाला एकेन्द्रिय जीव पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तमे' जन्म लेता है उसके जघन्य अनुभाग होता है। इस जघन्य अनुभागमे वृद्धि होने पर पुनः इन पर्यायोंमे उसी जीवके जघन्य अनुभाग नहीं हो सकता अत: इनमें दोनों प्रकारके अनुभागका अन्तर नहीं कहा है । तथा दुबारा उपशमश्रेणि पर चढ़कर वहांसे गिरकर पीछे दर्शनमोहनीयका क्षपण करके जो मनुष्य सौधर्मादिकमे उत्पन्न होता है उसके जघन्य अनुभाग होता है। वह जघन्य अनुभाग यावज्जीवन रहता है, अतः सौधर्मादिकमें भी अन्तरकाल नहीं कहा है। ६ ७६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक तक मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy