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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ७०. लेस्साणुवादेण किण्ह-णील-काउ० मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसूणाणि । अणुक० जहण्णुक्क० ओघं । तेउ०-पम्म० मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० वे-अहारससागरो० सादिरेयाणि । अणुक० जहण्णुक० ओघं । सुक्क० मोह० उक्कस्साणुक्कस्सा. पत्थि अंतरं । ७१. भवियाणु० भवसि० मोह० उक्क० ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जहण्णुक्क० अोघं । अभवसि०-भवसिद्धियाणमोघंभंगो। ६ ७२. सम्मत्ताणु० सम्मादिहि-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि० मोह० उक्कस्साणुकस्स० णत्थि अंतरं । मिच्छादिहीसु भवसिद्धियभंगो । ६७३. सण्णियाणु० सण्णीसु मोह० उक्क० ज० अंतीमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अणुक्क० जहण्णुक्क० ओघं । असण्णीसु मोह० उक्कस्साणुकस्स० गत्थि अंतरं । ७४. आहाराणु० आहारीसु मोह० उक० ज० अंतोमु०, उक्क० अंगुलस्स ६७. लेश्याकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सतरह सागर और कुछ कम सात सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघले समान है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: कुछ अधिक दो सागर और कुछ अधिक अठारह सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। शुक्ललेश्यावालोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। ९ ७१. भव्यत्वकी अपेक्षा भव्योंमे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। अभव्यों में भव्योंके समान भंग होता है। ७२. सम्यक्त्वकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है । मिथ्यादृष्टियोंमे भव्योंके समान भंग होता है । ७३ संज्ञित्वकी अपेक्षा संज्ञियोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पृथक्त्वसागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। असंज्ञी जीवोंमे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। ७४. आहारकी अपेक्षा आहारकोंमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर १. प्रा. प्रतौ भवसि० भंगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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