SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ६१२. पुगो अंगुलस्स असंखे०भागमेत्तकंडयपमाणेसु अणंतभागवडिटाणेसु जं चरिममणंतभागवड्डिहाणं तम्मि असंखेजलोगेहि भागे हिदे जं लद्धं तम्हि तत्थेव पक्खित्ते पढममसंखेज्जभागवडिहाणमुप्पज्जदि । एदस्स हाणंतरं हेहिमअणंतभागवडिहागंतरादो अणंतगुगं । को गुणगारो ? सबजीवाणमसंखे०भागो। तेसि को पडिभागो? असंखेज्जा लोगा। हेहिमफद्दयंतरादो एत्थतणफदयंतरमणंतगुणं । गुणगारो जाणिय वत्तव्यो । हेटिमहाणाणं पक्खेवफदयसलागेहिंतो एदस्स पक्खेवफद्दयसलागाओ असंखे०भागेण अब्भहियाओ । एदं कुदो णव्वदे ? असंखेज्जभागब्भहियहाणाणं अत: नीचे के स्पर्धकान्तरसे ऊपरका स्पर्धकान्तर अनन्तवें भागप्रमाण हीन होगा। किन्तु ऐसा नहीं है अतः सब प्रक्षेपोंकी स्पर्धक शलाकाएँ सजाति प्रक्षेपोंकी स्पर्धक शलाकाओंके समान ही होती हैं। इस तीसरे अनुभागस्थानको समस्त जीवराशिसे भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसीमें जोड़ देनेसे चौथा अनुभागस्थान होता है। जैसे तीसरे अनुभागस्थानका प्रमाण अंकसंदृष्टिसे १८२४०० है । इसमें जीवराशिके कल्पित प्रमाण ४ का भाग देनेसे लब्ध २५६०० आता है। इसे उसमें जोड़ देनेसे १०२४००+२५६०० =१२८००० चौथे स्थानका प्रमाण होता है। यह चौथा अनुभागस्थान अपने पूर्ववर्ती तीसरे अनुभागस्थानसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। उतना ही दोनों स्थानोंमें अन्तर है। इस अन्तरमें स्पर्धक शलाकाओंसे भाग देनेपर स्पर्धकान्तर होता है। यह स्पर्धकान्तर भी पहलके स्पर्धकान्तरसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है, क्योंकि दोनों स्थानोंकी स्पर्धक शलाकाएँ समान हैं। इस चौथे अनुभागस्थानमें सर्व जीवराशिसे भाग देनेपर जो लब्ध आने उसे उसीमें जोड़ देनेसे पांचवाँ अनुभागस्थान होता है। यहां पर भी स्थानान्तर और स्पर्धकान्तरका क्रम पहलेकी तरह समझ लेना चाहिये। इस प्रकार जघन्य अनुभागस्थानके ऊपर काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान होते हैं। ये स्थान बंधसे उत्पन्न होते हैं, उत्कर्षणसे नहीं उत्पन्न होते, क्योंकि जब अनुभागबन्ध सत्तामें स्थित अनुभागसे कम होता है या उसके समान होता है तब उत्कर्षणको प्राप्त हुए स्पर्धकोंका अनुभाग सत्तामें स्थित स्पर्धकोंके अनुभागसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक नहीं हो सकता। यद्यपि बन्धके समय उत्कर्षण भी होता है, इसलिए अनुभागस्थानोंकी उत्पत्ति बन्ध और उत्कर्षण दोनोंसे कही जा सकती है परन्तु इन्हें बन्धस्थान ही कहा जाता है, क्योंकि उत्कर्षण बन्धके अधीन है, बन्धके बिना उत्कर्षण नहीं होता इसलिये उसका बन्धमें ही अन्तर्भाव कर लिया है। ६१२. पुन: अगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंके समुदायको एक काण्डक कहते हैं। अत: अगुलके असंख्यातवें भाग काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थानोंमें जो अन्तिम अनन्तभागवृद्धि स्थान है उसमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसी स्थानमे जोड़ देने पर पहला असंख्यातभागवृद्धि स्थान उत्पन्न होता है। इस स्थानका अन्तर नीचेके अनन्तभागवृद्धि स्थानके अन्तरसे अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? यहां गुणकारका प्रमाण सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है । उसका प्रतिभाग क्या है ? प्रतिभाग असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा नीचेके स्पर्धकान्तरसे इस स्थानकास्पर्धकान्तर अनन्तगुणा है ? गुणकारका प्रमाण जानकर कहना चाहिये। नीचेके स्थानोंके प्रक्षेप स्पर्धकोंकी शलाकाओंसे इस स्थानकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं । १. ता प्रतौ पढम (मा) संखेज- मा. प्रतौ पढमसंखेज- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy