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________________ गा० २२] अणुभागविहत्तीए द्वाणपरूवणा ३७१ . तं जहा-सव्वजीवेहि विदियहाणे भागे हिदे जं लद्धं तम्मि तं चेव पडिरासिय पक्वित्ते तदियमणुभागहाणं होदि । पुबिल्लहाणंतरादो एदं' हाणंतरमणंतभागभहियं, जहण्णहाणादो अणंतभागब्भहियविदियहाणं सबजीवेहि खंडिदूण तत्थेगखंडस्स वडिदत्तादो । पुचिल्लपक्खेवफद्दयंतरादो संपहियद्वाणपक्खेवफदयंतरं अणंतभागब्भहियं, एत्थतणफद्दयसलागाहि विहज्जमाणरासिस्स पुव्विल्लविहज्जमाणरासिं पेक्खियूण अणंतभागभहियत्तादो । पुव्विल्लपक्खेवफदयसलागाहिंतो संपहियपक्खेवफद्दयसलागा सरिसा, एकाए वि फद्दयसलागाए वडिदाए फदयंतरस्स पुग्विल्लपक्खेवफद्दयंतरादो अणंतभागहीणत्तप्पसंगादो । सेसं पुव्वं व वत्तव्यं । एवं तदियहाणपख्वणा गदा।। ___६११. संपहि चउत्थट्टाणुप्पत्तिं भणिस्सामो। तं जहा-तदियहाणादो दोपक्खेवेसु एगपिसुलेसु च अवणिदे [सु] अवणिदसेसं जहण्णहाणं होदि । पुणो सव्वजीवरासिणा जहण्णहाणे सपिमुलदोपक्खेवेमु च ओवट्टिदेसु जं लद्धं तं घेत्तण तदियहाणं पडिरासिय तत्थ पक्वित्ते चउत्थटाणमुप्पज्जदि । एत्थतणहाणंतरं विदियतदियहाणंतरादो अणंतभागब्भहियं, विहज्जमाणरासिस्स पुन्विल्लविहज्जमाणरासी पेक्खिदण अणंतभागब्भहियत्तादो। पुव्विल्लपक्खेवफद्दयंतरादो एत्थतणपक्खेवफद्दयंतरं कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-दूसरे अनुभागस्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध आने उसे उसीको प्रतिराशि करके उसमें मिला देने पर तीसरा अनुभागस्थान होता है। पहले के अनुभाग स्थानान्तरसे यह अनुभागस्थानान्तर अनन्तवाँ भाग अधिक है, क्योंकि जघन्य अनुभागस्थानसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक द्वितीय अनुभागस्थानके सर्व जीवराशिप्रमाण खण्ड करके उनमें से एक खण्डको इसमें वृद्धि हुई है तथा पहलेके प्रक्षेप स्पर्धककान्तरसे साम्प्रतिक स्थानका प्रक्षेपस्पर्धकान्तर अनन्तवां भाग अधिक है, क्योंकि पहले जिस राशिमें भाग दिया गया था उस राशिकी अपेक्षा यहाँकी शलाकाओंसे भाजितकी जानेवाली राशि अनन्तवां भाग अधिक है । तथा पहले के प्रक्षेप स्पर्धककी शलाकाओंसे वर्तमान प्रक्षेप स्पर्धककी शलाका समान हैं, क्योंकि यदि उससे इसमें एक भी शलाका अधिक मानी जायगी तो पहलेके प्रक्षेप स्पर्धकान्तरसे वर्तमान स्पर्धकान्तरके अनन्तभाग हीन होनेका प्रसंग प्राप्त होगा। शेष बातें पहलेकी तरह कहनी चाहिए । इस प्रकार तीसरे अनुभागस्थानका कथन समाप्त हुआ। ६११. अब चौथे अनुभागस्थानकी उत्पत्तिको कहते हैं। वह इस प्रकार है-तीसरे अनुभागस्थानमेंसे दो प्रक्षेप और एक पिशुलके घटाने पर जो शेष रहता है वह जघन्य स्थान होता है । पुन: सब जीवराशिका जघन्य स्थानमें और पिशुल सहित दो प्रक्षेपोंमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे लेकर तीसरे अनुभागस्थानको प्रतिराशि करके उसमें जोड़ देनेपर चौथा अनुभागस्थान उत्पन्न होता है। इस अनुभागस्थानका अन्तर दूसरे और तीसरे अनुभागस्थानके अन्तरसे अनन्तवाँ भाग अधिक है, क्योंकि यहां पर जिस राशिमें भाग दिया गया है वह राशि पहलेकी विभज्यमान राशिसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। पहलेके प्रक्षेप स्पर्धकके अन्तरसे इस अनुभ गस्थानके प्रक्षेप स्पर्धकका अन्तर अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। तथा इस स्थानकी १. ता० प्रती एवं (दं) प्रा० प्रतौ एवं इति पाठः। २. ता० प्रतौ जहरणटाणेसु पिसुलदोपक्खेवेसु इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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