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सरस्वती
[भाग ३६
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जाती है, यहाँ तक कि अन्त में वह नृत्य इतना उन्मादकारी हो जाता है कि अनेक नर्तक संज्ञाविहीन होकर ज़मीन पर गिर पड़ते हैं। नर्तकों में कई व्यक्ति स्त्री, साधु, राजा, रानी इत्यादि के स्वाँग भी बनाते हैं। ___ मारवाड़ में 'गनगोर', 'तीज', 'बासेड़ा' इत्यादि बहुत-से त्योहार होते हैं । इन त्योहारों के दिन वहाँ की स्त्रियों के झुण्ड के झुण्ड गीत गाते हुए किसी निश्चित स्थान पर जाते हैं, और अपना त्योहार मनाते हैं। उस समय एक साथ अनेक सुरीले गलों से गाये गये गीत समूचे ग्राम में संगीत की स्वर्गीय छटा उपस्थित कर देते हैं। _मारवाड़ में सन्ध्या का बड़ी सुन्दरता-पूर्वक प्रवेश होता है। सन्ध्या के समय ग्राम के बाहर बागीचों के इर्द-गिर्द मोर प्रकृति के सौन्दर्य पर मुग्ध हो गायन प्रारम्भ कर देते हैं। कितने ही मोर तो भावुकता में इतने अधिक
[चित्रकला से सुसज्जित मारवाड़ की इमारतें ।।
हैं। उस समय चक्की की घर घर्र आवाज़ के साथ उनके गीतों में सरसता या जाती है। वे सुनने में स्वर्गीय प्रतीत होते हैं।
राजस्थान के रेगिस्तान में रात के समय ऊँटों पर यात्रा करनी पड़ती है। वहाँ के निर्जन रास्तों में डाकुत्रों का भय रहता है, इसलिए ऊँटवालों को बहुत सतर्क रहना पड़ता है। वे लोग जागते रहने के लिए रास्ते भर 'निहालदे', 'वनजारे' इत्यादि के गीत गाते हैं। कई व्यक्तियों के मुँह से एक साथ निकले हुए वे गीत दूर से बहुत मधुर प्रतीत होते हैं।
होली के दिनों में गुजरात के 'गर्वा-नृत्य' की ही भाँति मारवाड़ में रात के समय 'गींदड़' हुअा करती है । बीच में एक व्यक्ति नगाड़ा बजाता है। उसके चारों ओर कुण्डली के आकार में सौ तक की संख्या में ग्रामीण लोग दो दो डंके लेकर नृत्य और गायन करते हैं। डंके की चोट के साथ ही साथ उनके नृत्य की गति भी तेज़ होती hree Sudharmaswami Gyanbhandar Umara Surat
[मारवाड़ के भावुक मोर ।
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