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संगीतमय
मारवाड
गीत विश्व की एक अमर विभूति है। संसार
. में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ गीत का अस्तित्व न हो। मनुष्यों की पहुंच से दूर, प्रकृति के राज्य में भी, जहाँ न हारमोनियम है, न तबला है और न गीत बनानेवाले कवि ही हैं, संगीत का सच्चा रूप विद्यमान रहता है। प्रत्येक देश में, प्रत्येक जाति में, किसी न किसी अंश में गीत अवश्य गाये जाते हैं। जङ्गली जातियों में भी उनके विशेष अवसरों पर गायन और नृत्य होते हैं, यद्यपि उनका वह संगीत सभ्य समाज की समझ के बिलकुल बाहर होता है।
भारतवर्ष में अन्य देशों की अपेक्षा गीतों का अधिक प्रचार है। वैसे तो यहाँ भी ऐसा कोई स्थान नहीं बचा है जहाँ गीत न गाये जाते हों, तो भी कई प्रान्त गीतों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। उन प्रान्तों के गीतों पर अनेक लेखकों द्वारा खासा प्रकाश भी डाला गया है । किन्तु अभी तक मारवाड़ के गीतों के सम्बन्ध में हिन्दी-साहित्य में एक प्रकार से कुछ भी नहीं लिखा गया है। कुछ साहित्यिकों ने वैसा करने का प्रयास ज़रूर किया है, किन्तु एक तो उनके मारवाड़ी न होने के कारण, दूसरे गीतों की भाषा सर्वसाधारण के लिए बोधगम्य न होने से वे विशेष रूप से अपने प्रयत्न में सफल नहीं हो सके। इसके अतिरिक्त मारवाड़ के गीतों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की गलतफ़हमियाँ भी हिन्दी-साहित्य में फैली हुई हैं।
कई एक पुस्तकें एवं पत्रों के विशेषांक इस ढंग के प्रकाशित हुए हैं कि उनमें केवल चुन चुनकर मारवाड़ के गीतों की गन्दगी पर ही प्रकाश डाला गया है। इसके अलावा मारवाड़ के वे गीत जिनसे किसी दिन मारवाड़ का समूचा वायुमण्डल चारणों और बारहठों के सिंहनाद से गूंजा करता था, जिन गीतों से किसी दिन मारवाड़ के नवयुवकों में अद्भुत शक्ति उत्पन्न होती थी, आज वे गीत अन्धकार में पड़े हुए
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लेखक, श्रीयुत बालकृष्ण पोद्दार
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