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रघुवंश महाकाव्य
मार्ग में जहाँ-जहाँ युवराज अज का डेरा पड़ता था वहाँ आसपास के लोगों द्वारा लाई गई भेंट से तम्बू भर जाते थे । उद्यानों और क्रीड़ास्थलों की सारी सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध हो जाती थीं। ऐसा ही एक पड़ाव नर्मदा के किनारे पड़ा जहाँ मार्ग की धूल से लथपथ सेना को नदी जल से आर्द्र और नक्तमाल वृक्षों की शीतल वायु से बड़ी शान्ति मिली ।
इसी समय एक जंगली हाथी, जिसके गण्डस्थल जल से धुल जाने से अब स्वच्छ हो गये थे किन्तु पानी के ऊपर मद की सुगन्ध से मंडराते भौंरे यह बता रहे थे कि प्रचुर मद बहाता हुआ यह इस जल के अन्दर घुसा है, जल से बाहर निकला । यद्यपि उसके शरीर की धूल साफ हो गई थी, फिर भी पत्थरों से टकराने के कारण पड़ी हुई नीली रेखाओं वाले उसके दांत बता रहे थे कि ऋक्षवान् के तटों में यह दांतों से
प्रक्रीड़ा (मिट्टी खोदना) करता रहा है । अपनी सूंड को फैलाता - सिकोड़ता और चिंघाड़ते हुए पानी को चीरता हुआ वह पहाड़ जैसा हाथी सेवार के समूह को बखेरता हुआ ज्योंही बाहर आने को हुआ उससे पूर्व उसके वेग से नदी का जल किनारे पर
आ लगा ।
जल से बाहर निकलते ही सेना के पालतू हाथियों को देखकर उसके कपोलों से फिर मदवारि चूने लगा और सप्तपर्ण की-सी उसकी तीव्र गन्ध से सेना के हाथी महावतों के नियन्त्रण से बाहर हो गये । रथों में जुते घोड़े अपने बन्धन तोड़कर इधरउधर भागने लगे । चारों ओर कोलाहल मच गया । सैनिक महिलाओं को बचाने में * जुट गये । अज जानता था कि वन्य हाथी को मारना शास्त्रों में निषिद्ध है, अतः उसे केवल रोकने के लिये उसने एक हलका-सा बाण उसके कपोल पर फेंका। ज्योंही वह बाण उसे लगा त्योंही वह हाथी की देह त्याग कर चमकती कान्तिवाला दिव्य शरीरधारी देवता-सा हो गया । सारी सेना आश्चर्य से उसे देखने लगी ।
उसने पहले तो अज पर फूल बरसाये, फिर बोला- मैं प्रियदर्शन नाम के गन्धर्व का पुत्र प्रियंवद हूं । मतङ्ग ऋषि के शाप से हाथी हो गया था । जब मैंने अपने अपराध के लिये क्षमा मांगी तो ऋषि ने कहा था- - इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न अज जब अपने बाण से तुम्हारे गण्डस्थल का भेदन करेगा तब तुम शाप से मुक्त होकर अपने दिव्य रूप को प्राप्त करोगे। मैं बहुत काल से आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। आज आप मुझे शाप से मुक्त कर अनुगृहीत कर दिया । अब यदि इस उपकार के बदले मैंने आपका कोई भलान किया तो मैं कृतघ्न हो जाऊंगा औरमेरा यह दिव्य रूप व्यर्थ होगा । मैं