Book Title: Raghuvansh Mahakavya
Author(s): Kalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
Publisher: Motilal Banarsidass
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एकादशसर्ग का कथासार
ऋषि विश्वामित्र ने अपने यज्ञ में विघ्न करनेवाले राक्षसों का विनाश करने के लिये राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को मांगा। यद्यपि राम अभी बच्चे ही थे पर तेजस्वियों की अवस्था नहीं देखी जाती। राजा ने बड़ी कठिनाई से प्राप्त पुत्र राम को ऋषि को, इच्छा न रहते भी, दे दिया क्योंकि रघुवंशी मांगनेवाले को अपने प्राण तक देने के लिए तैयार रहते थे। राजा जब तक दोनों की मांगलिक यात्रा का प्रबन्ध करते तब तक बादलों ने सुगन्धित जल बरसाकर रास्ते साफ कर दिये । दोनों राजकुमारों ने पिता को प्रणाम किया और राजा ने स्नेहाश्रु से सींचते हुए उन्हें आशीर्वाद दिया। धनषधारी उन दोनों को जाते देख सारी अयोध्या ऋषि के पीछे-पीछे जाने लगी, परन्तु ऋषि केवल राम-लक्ष्मण को ही ले जाना चाहते थे, सेना को नहीं, क्योंकि राजा का आशीर्वाद ही उन दोनों की रक्षा करने के लिये पर्याप्त था।
माताओं को प्रणाम कर वे दोनों (राम-लक्ष्मण) विश्वामित्र के साथ ऐसे चले जैसे सूर्य के साथ मधु और माधव (चैत्र-वैशाख) चलते हैं। मार्ग में ऋषि द्वारा दी हुई बला और अतिबला नामक विद्याओं के प्रभाव से मणिमय फर्शों पर चलनेवाले उन राजकुमारों को जंगल के कंटीले मार्ग भी सुगम लगने लगे। ऋषि से पुरानी कथाओं को सुनते हुए उन्हें थकान का कुछ भी अनुभव नहीं हुआ । आश्रम में पहुंचने पर उन्हें देखकर ऋषियों को इतना आनन्द हुआ जितना कि कमलों से सुशोभित सरोवरों या छायादार वृक्षों को देखकर किसी थके व्यक्ति को होता है। विश्वामित्र का वह आश्रम, जहाँ शिवजी ने कामदेव को दग्ध कर दिया था, कामदेव से भी सुन्दर शरीरवाले उन राजकुमारों से सुशोभित हो गया।
उस वन में अगस्त्य ऋषि के शाप से दारुण रूपवाली ताड़का ऋषियों को त्रास देती थी। अतः दोनों भाई वहाँ पहुँचकर चौकन्ने हो गये और उन्होंने अपने-अपने धनुषों पर प्रत्यञ्चा चढ़ा ली। प्रत्यञ्चा का शब्द सुनकर अन्धकार-जैसी काली, नरकपालों के कुण्डल पहिनी हुई, भयानक रूपवाली राक्षसी ताड़का प्रकट हो गई। उसके वेग से वृक्ष कांपने लगे । मुर्दो के क़फन के चिथड़े लटकाई हुई और चिंघाड़ती हुई श्मशान से आती हुई दुर्गन्ध-युक्त आंधी की तरह उसे देखकर पहिले तो राम