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षोडशसर्ग का कथासार
राम के स्वर्गारोहण के बाद उन सातों रघुवंशियों (लव, तक्ष, पुष्कल, अंगद, चित्रकेतु, सुबाहु, बहुश्रुत ) ने कुश को अपनी परम्परानुसार बड़ा मानकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली । वे प्रजा के कल्याण के लिए मिलकर सब कार्य करते हुए भी एक-दूसरे की सीमा का उल्लंघन नहीं करते थे । इस प्रकार आठ भाइयों द्वारा दशरथ की वंशबेल बढ़ रही थी ।
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एक दिन आधी रात को जबकि दीये बुझे थे और सब लोग घोर निद्रा में थे कुश ने अपने शयनागार में एक स्त्री को देखा जो विरहिणी-जैसी दीख रही थी । उस स्त्री ने पहले कुश की जय-जयकार की, फिर हाथ जोड़े। उसे देखकर कुश हड़बड़ाकर उठे और बिस्तर पर बैठकर उससे बोले -- हे कल्याणि ! जिस घर के द्वार बन्द हैं और चारों ओर पहरा है उसके तुम अन्दर कैसे आ गईं ? कोई योगमाया जाननेवाली-सी तो नहीं लगती हो, मुरझाई कमलिनी-सी दुःखिनी प्रतीत होती हो, तुम कौन हो ? किसकी पत्नी हो और यहाँ किस उद्देश्य से आई हो ? स्पष्ट उत्तर दो। हम रघुवंशियों का मन कभी परस्त्री की ओर नहीं झुकता ।
उस स्त्री ने कहा- हे राजन् ! मैं उस अयोध्यापुरी की अधिष्ठात्री देवता हूँ जिसके पुरवासियों को तुम्हारे पिता राम अपने साथ वैकुण्ठधाम को लेते गये । राम के राज्य में अपने ऐश्वर्य से मैं कुबेर की अलकापुरी को मात करती थी । प्राज तुम जैसे सशक्त सूर्यवंशी राजा के होते हुए मेरी यह दुर्दशा है । स्वामी - विहीन होने से मेरी वह नगरी खंडहर हो रही है । आकाश को छूती हुई अट्टालिकाएं ध्वस्त हो रही हैं । संगीतशालाएँ टूट रही हैं । जिन राजमार्गों पर अभिसारिकाओं के नूपुर बजते थे वहाँ आज गीदड़ बोल रहे हैं । जिन बावड़ियों पर नागरिक स्त्रियों के पानी भरते समय मृदंग की जैसी ध्वनि होती थी वहाँ जंगली भैंसों के सींग टूट रहे हैं। वे क्रीड़ामयूर जो मेरे उद्यानों की शोभा थे आज पेड़ों पर सो रहे हैं क्योंकि उनके लिए बने आवास नष्ट हो गये हैं । मृदंगों का शब्द न होने से वे नाच नहीं पाते । वनाग्नि से उनके पंख और कलगियाँ झुलस गई हैं। जिन सीढ़ियों पर सुन्दरी बहुत्रों के पैरों के महावर के चिह्न लग जाते थे, वहाँ आज हरिणों के रक्त से सने बाघों के पैर के चिह्न