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रघुवंशमहाकाव्य
आकाश को गुंजा रहा था । स्थान-स्थान पर वनवासी किरात आदि विविध उपहार लेकर उपस्थित हो रहे थे और राजा कुश आदरपूर्वक उसे ग्रहण करता था।
त्रिवेणी पर अन्तिम पड़ाव करने के बाद सेना-सहित कुश सरयूतट पर पहुंचा जहाँ उसे अपने पूर्वजों द्वारा किये गये यज्ञों के प्रतीक-रूप सैकड़ों स्तम्भ दिखाई दिये। राजधानी अयोध्या में प्रविष्ट होते ही सरयू की शीतल, मन्द और पुष्पों की गन्ध से युक्त वायु जैसे उस पर पंखा झल रही थी। कुशल कारीगरों ने थोड़े ही समय में अयोध्या को नई नगरी का रूप दे दिया। कुश ने नगरी में प्रवेश करके पहिले देवालयों में देवताओं की पूजा की, फिर अमात्यों तथा अनुजीवियों के रहने की व्यवस्था की। घुड़सालों में घोड़े हिनहिनाने लगे, पालान स्तम्भों पर हाथी झूलने लगे, दुकानें बहुमूल्य सामग्री से भर गईं। वहाँ रहते हुए राजा कुश से स्वर्ग के राजा इन्द्र और अलकापति कुबेर भी स्पर्धा करने लगे।
एक बार जब सूर्य उत्तरायण में थे, प्रचण्ड ग्रीष्म ऋतु आई। तालाबों का पानी सेवारवाली सीढ़ियों को छोड़कर नीचे उतरने लगा। धनी लोग शीतल' गृहों में चन्दनमिश्रित जलों के फुहारों का आनन्द लेने लगे। राजा कुश की भी इच्छा हुई कि परिवार सहित तापहारिणी सरयू के जल में विहार करे । स्नान के उपयुक्त घाट तैयार किये गये। जाल डालकर तैराकों ने हिंसक मकर आदि को निकाल डाला। चिरकाल तक राजा ने नौका-विहार किया और फिर बहुमूल्य हारों से शोभित हुआ रानियों-सहित जल में प्रविष्ट हो गया। बहुत देर तक जल-विहार करने के बाद जब राजा बाहर आया तो उसके हाथ का वह सुवर्ण कङ्कण जल में गिर गया था जिसे अगस्त्य मुनि ने प्रसादरूप में राम को दिया था और जो उत्तराधिकार के रूप में कुश को मिला था। यद्यपि उसे कङ्कण का लोभ नहीं था किन्तु वह कङ्कण उसके पिता की विजय का प्रतीक था, इसलिए उसने गोताखोरों को आदेश दिया कि उसे खोजें । उन्होंने बहुत प्रयत्न किया पर कङ्कण नहीं मिला तो गोताखोरों ने विश्वासपूर्वक कहा कि बहुत ढूंढने पर भी कङ्कण नहीं मिला, लगता है उसे कोई नाग निगल गया है। यह सुनते ही राजा को क्रोध आया और उसने नागों का सर्वनाश करने के लिए गरुड़ास्त्र को हाथ में ले लिया। उसके हाथ में गरुड़ास्त्र देखते ही भयभीत हुआ नागराज अपनी कन्या-सहित जल से निकलकर ऊपर आ गया। उसके हाथ में कङ्कण और विनीत मुद्रा देखकर कुश को उसपर दया आ गई और उसने अस्त्र का प्रयोग नहीं किया।