Book Title: Raghuvansh Mahakavya
Author(s): Kalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
Publisher: Motilal Banarsidass

Previous | Next

Page 1074
________________ २०० रघुवंशे दृश्याः = द्रष्टुं योग्याः बन्धाः= अअलिपुटाः येषां तैः प्रासादवातायनदृश्यबन्धैः अञ्जलिभिः= करसंपुटैः “अञ्जलिस्तु पुमान् हरतसम्पुटे कुडवेऽपि च" इति मेदिनी। प्रणेमुः= प्रणामं चक्रुः । भवनवातायनस्थिता एव नार्यः मनुष्यवाह्ययानस्थितां सीताम् हस्तौ सम्पुटीकृत्य प्रणाम चक्रुरित्यर्थः। समासः-श्वश्रूजनैः अनुष्ठितः चारः वेषः यस्याः सा तां श्वश्रूजनानुष्ठितचारुवेषाम् । रघूणां वीरः रघुवीरस्तरय पत्नी तां रघुवीरपत्नीम् । साकेतस्य नार्यः साकेतनार्यः । प्रासादानां वातायनानि प्रासादवातायनानि, तेषु दृश्याः बन्धाः येषां ते तेः प्रासादवातायनदृश्यबन्धैः। हिन्दी--सास कौसल्या और सुमित्रा से वस्त्रालंकार से अच्छी प्रकार सजाई गई, तथा पाटकी में बैठी हुई, रघुवीर श्रीराम की पत्नी सीता को अयोध्या की नारियों ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया, ( जिनका हाथ जोड़ना ) भवनों के झरोखों से दीख पड़ रहा था ॥ १३ ॥ स्फुरत्प्रभामण्डलमानसूयं सा बिम्रती शाश्वतमगरागम् । रराज शुद्धति पुनः स्वपुर्यै संदर्शिता वह्निगतेव भर्ना ॥ १४ ॥ स्फुरत्प्रभामण्डलमानसूयमनसूयया दत्तं शाश्वतं सदातनमङ्गरागं बिभ्रती सा सीता भर्ना स्वपुर्यै शुद्धति संदर्शिता पुनर्वह्निगतेव रराज ॥ अन्वयः--स्फुरत्प्रभामण्डलम् आनुसूयं शाश्वतम् अंगरागं बिभ्रती सा भर्ना स्वपुर्यं शुद्धा इति सन्दर्शिता पुनः वह्निगता इव रराज । व्याख्या-प्रभायाः कान्तेः मण्डलं =समूहः इति प्रभामण्डलम् । स्फुरत् = देदीप्यमानं प्रभामण्डलं यस्य स तं स्फुरत्प्रभामण्डलम् अनुसूयायाः अयम् आनुसूयः तम् , अत्रिमहर्षेः पत्न्या दत्तम् शश्वत् भवः शाश्वतः तं सदातनम् अंगरय = शरीरस्य रागः= विलेपनद्रव्यम् , तम् अंगरागम् = बिभ्रती=धारयन्ती सा=सोता बिभर्तीति भर्ता तेन भर्ना=रामेण स्वस्य पुरी स्वपुरी तस्यै स्वपुर्यं = अयोध्याय, साकेतनागरिकेभ्य इत्यर्थः। शुद्धा पवित्रा इति सन्दर्शिता= लोकप्रत्यक्षीकृता पुनः= भूयः, इदानीमेवेत्यर्थः वह्नौ= अग्नौ गता= प्रविष्टा, इति वह्निगता इव = यथा रराज =शुशुमे। समास:--प्रभायाः मण्डलं प्रभामण्डलं, स्फुरत् प्रभामण्डलं यस्य स तं स्फुरत्प्रभामण्डलम् । अंगस्य रागः अंगरागरतम् अंगरागम् । स्वस्य पुरी स्वपुरी तस्य स्वपुर्यै । वह्नौ गता वह्निगता। हिन्दी-चमकदार कान्तिवाला तथा कभी न मिटने वाले सती अनसूया के दिये हुए, सुगन्धित लेप ( उबटन ) को धारण किये ( लगाए ) हुए 'सीता जी पवित्र हैं' अपनी प्रजा साकेत निवासियों को इस प्रकार दिखाई गई ऐसी सुशोभित लग रही थी मानो राम ने फिर से उन्हें अग्नि में प्रवेश कराया हो ॥ १४ ॥ वेश्मानि रामः परिबर्हवन्ति विश्राण्य सौहार्दनिधिः सुहृद्भयः । बाष्पायमाणो बलिमन्निकेतमालेख्यशेषस्य पितुर्विवेश ॥ १५ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 1072 1073 1074 1075 1076 1077 1078 1079 1080 1081 1082 1083 1084 1085 1086 1087 1088 1089 1090 1091 1092 1093 1094 1095 1096 1097 1098 1099 1100 1101 1102 1103 1104 1105 1106 1107 1108 1109 1110 1111 1112 1113 1114 1115 1116 1117 1118 1119 1120 1121 1122 1123 1124 1125 1126 1127 1128 1129 1130 1131 1132 1133 1134 1135 1136 1137 1138 1139 1140 1141 1142 1143 1144 1145 1146 1147 1148 1149 1150 1151 1152 1153 1154 1155 1156 1157 1158 1159 1160 1161 1162 1163 1164 1165 1166 1167 1168 1169 1170 1171 1172 1173 1174 1175 1176 1177 1178 1179 1180 1181 1182 1183 1184 1185 1186 1187 1188 1189 1190 1191 1192 1193 1194 1195 1196 1197 1198 1199 1200 1201 1202 1203 1204 1205 1206 1207 1208 1209 1210 1211 1212 1213 1214 1215 1216 1217 1218 1219 1220 1221 1222 1223 1224 1225 1226 1227 1228 1229 1230 1231 1232 1233 1234 1235 1236 1237 1238 1239 1240 1241 1242 1243 1244 1245 1246 1247 1248 1249 1250 1251 1252 1253 1254 1255 1256 1257 1258 1259 1260 1261 1262 1263 1264 1265 1266 1267 1268 1269 1270 1271 1272 1273 1274 1275 1276 1277 1278 1279 1280 1281 1282 1283 1284 1285 1286 1287 1288 1289 1290 1291 1292 1293 1294 1295 1296 1297 1298 1299 1300 1301 1302 1303 1304 1305 1306 1307 1308 1309 1310 1311 1312 1313 1314 1315 1316 1317 1318 1319 1320 1321 1322 1323 1324 1325 1326 1327 1328 1329 1330 1331 1332 1333 1334 1335 1336 1337 1338 1339 1340 1341 1342 1343 1344 1345 1346 1347 1348 1349 1350 1351 1352 1353 1354 1355 1356 1357 1358 1359 1360 1361 1362 1363 1364 1365 1366 1367 1368 1369 1370 1371 1372 1373 1374 1375 1376 1377 1378 1379 1380 1381 1382 1383 1384 1385 1386 1387 1388 1389 1390 1391 1392 1393 1394 1395 1396 1397 1398 1399 1400 1401 1402 1403 1404 1405 1406 1407 1408 1409 1410 1411 1412