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एकोनविंशसर्ग का कथासार
वृद्धावस्था आने पर राजा सुदर्शन अपने पुत्र अग्निवर्ण को राज्य सौंपकर तपस्या करने मैथिलारण्य चला गया, जहाँ तीर्थजलों में स्नान, कुटिया में कुश की शय्या पर विश्राम करते हुए उसने महलों के पाराम को भुला दिया और निष्काम भाव से तप करने लगा। अग्निवर्ण को राज्य-संचालन में कोई कठिनाई नहीं हुई, क्योंकि उसके शत्रुजयी पिता ने उसके भविष्य की दृष्टि से ही राज्य की ऐसी व्यवस्था बना दी थी। अतः राज्य की ओर से निश्चिन्त हुअा अग्निवर्ण भोगविलास में प्रवृत्त हो गया और सारा भार मंत्रियों पर छोड़ दिया।
कामिनियों के साथ महलों में अग्निवर्ण के एक-से-एक बढ़कर उत्सव होने लगे। प्रजाजन उसके दर्शनों के लिये तरसते थे और वह एक क्षण के लिये भी विषयोपभोगों को न छोड़ता हुअा रातदिन अन्तःपुर में ही बिताने लगा। कभी मन्त्रियों के कहने पर प्रजा के सामने गया भी तो केवल झरोखों से उसके चरण देखकर ही प्रजा को सन्तोष करना पड़ता। वह कामिनियों के साथ बावड़ियों में जलविहार करता हुआ उनकी विभिन्न कामक्रीड़ाओं में मग्न रहता। कभी उनके साथ मद्यपान करने लगता। मधुर झंकार करती वीणा और सुन्दरियों से उसकी गोद कभी खाली नहीं रहती। उनके साथ रहकर वह स्वयं भी कई वाद्यों में निपुण हो गया था जिससे वे और भी उसपर न्यौछावर होती थीं। वह बिना किसी लज्जा के उनका मुख चूमने लगता था। कामिनियाँ उसे अधिक लुभाने के लिये कभी-कभी आधे ही उपभोग में रूठने का अभिनय करतीं और वह उन्हें मनाने लगता। कभी उनकी अंगुलियों, भौंहों और मेखलाओं से उनकी फटकार सहता, फिर भी दूतियों द्वारा उनसे अपनी वासनातृप्ति की याचना करता था। वह वेश्याओं और नर्तकियों के इतना वशीभूत हो गया था कि रानियों को किसी उत्सव के बहाने उसे अपने अन्तःपुर में प्रयत्न से बुलाना पड़ता था। रातभर अन्यत्र रहकर जब प्रातः रानियों के पास आता था तो वे खण्डिताएँ उससे अतृप्त हुई आंसू बहाती थीं। कभी-कभी तो रानियों के पास जाने में लज्जा करता हुआ परिजनों की अङ्गनामों से एकान्त में अपनी प्यास बुझाता था और सुन्दरियों के व्यङ्गबाण सहता था। इस प्रकार कई ढंग से अनवरत काम