Book Title: Raghuvansh Mahakavya
Author(s): Kalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
Publisher: Motilal Banarsidass
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षोडशसर्ग का कथासार
२६
बन रहे हैं । कमलवनों में बने चित्रमय हाथियों के मस्तक, वास्तविक हाथी समझकर शेरों ने फाड़ डाले हैं । लकड़ी के खम्भों पर बनी सुन्दरियों के चित्रों से रंग उड़ गये हैं। उन्हें चन्दनवृक्ष समझकर सांपों ने लपेट लिया है और उनपर अपनी कैंचुल छोड़ दी है, जो चिपककर प्रोढ़नी जैसी लगती है । महलों में चूने की पुताई काली पड़ गई है । उनपर घास उग आई है जिससे चांदनी महलों के अन्दर नहीं जा पाती । जिन उद्यान - लताओं के टूटने के डर से विलासिनियाँ धीरे से झुकाकर फूल तोड़ा करती थीं उन्हें जंगली कोल, भील, किरातों और बन्दरों ने छिन्न-भिन्न कर डाला है । जिन झरोखों से रात में दीपक का प्रकाश और दिन में विलासिनियों की मुखकान्ति बाहर आती थी उनपर अब मकड़ी के जाले लगे हैं । सरयू नदी प्राज सन्तप्त हो रही है क्योंकि उसके किनारे कोई ध्यान पूजा नहीं करता, जल में स्नान नहीं करता और विहार करने की वेत की झाड़ियाँ वहाँ नहीं रह गई हैं । अतः हे राजन् ! जैसे तुम्हारे पिता (राम) कार्यवश धारण किये मानव शरीर को छोड़ परमात्मा में अवस्थित हो गये ऐसे ही तुमभी इस कुशावती को छोड़कर अपने पूर्वजों की राजधानी अयोध्या में चले आओ ।
कुश ने प्रसन्नतापूर्वक प्रयोध्या की अधिदेवता की प्रार्थना स्वीकार कर ली तो वह भी सन्तुष्ट हो अन्तर्धान हो गई। प्रातः राजा ने अपने सभासदों को रात की घटना सुनाई तो उन्होंने प्रशंसा करते हुए कहा -- राजन् ! आपको राजधानी ने स्वयं वरण कर लिया है, अतः अवश्य जाइये । तब राजा ने कुशावती श्रोत्रिय ब्राह्मणों को सौंप दी और ग्रनुकूल समय में परिजनों सहित अयोध्या को प्रस्थान किया ।
जैसे बरसाती वायु के पीछे बादल उमड़ते हैं वैसे ही कुश के पीछे सेना भी उमड़ पड़ी । सेना के शिविर ही कुश की राजधानी - जैसे लगने लगे जिनमें ध्वजानों की कतारें उपवन-जैसी, हाथियों के झुण्ड क्रीड़ा फूलों- जैसे, रथ भवनों जैसे लग रहे थे । आगे-आगे चलती राजपताका के पीछे सेना का ऐसा कोलाहल हो रहा था जैसे चन्द्रमा के उदय होने पर समुद्र में ज्वार-भाटा आ गया हो । चारों ओर सेना ही सेना दीख रही थी । मार्ग की जो धूलि उसके हाथियों के मदजल से कीचड़ जैसी हो गई थी वही उसके घोड़ों के खुरों से चूर चूर होकर पुन: प्रकाश में उड़ने लगी । विन्ध्य की घाटियों में रेवा नदी के समान उस सेना के कोलाहल की प्रतिध्वनि गुफा में गूंजने लगी । मार्ग के रंगीन पत्थरों से रगड़ खाकर रथों के पहिये रंगीन हो गये थे । सेना की कलकल ध्वनि में मिला हुआ प्रयाण काल के बाजों का शब्द