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द्वादशसर्ग का कथासार
प्रातःकाल तेल समाप्त हो जाने पर बुझते दीये की लौ की तरह राजा दशरथ भी जीवन की अन्तिम अवस्था को पहुंच चुके थे। वृद्धावस्था ने कैकेयी के डर से सफेद बालों के बहाने जैसे उनके कान में कह दिया था कि अब राज्य राम को दे डालो। राम के अभिषेक के समाचार से नागरिक हर्ष से खिल उठे । यौवराज्याभिषेक की सामग्री देखकर क्रुद्ध हुई कैकेयी ने राजा द्वारा प्रतिश्रुत दो वरदानों की बात ऐसे उगल दी जैसे बरसात में बिल से दो सांप निकले हों। उसने एक वरदान में राम को चौदह वर्ष का वनवास और दूसरे में भरत को राज्याभिषेक चाहा। राम को जब राज्याभिषेक का समाचार मिला, मुझे राज्य देकर पिता वन को चले जायेंगे, यह सोचकर वे रो दिये और जब वनवास का समाचार मिला तो, पिता की आज्ञा-पालन करने का अवसर मिला तो, यह जानकर प्रसन्न हुए। राज्याभिषेक के लिए रेशमी वस्र और वनवास के लिए वल्कल पहनते हुए उनकी मुखाकृति में कोई अन्तर नहीं आया। पिता के वचन की रक्षा के लिए वे सीता
और लक्ष्मण को साथ लेकर वन को चल दिये। राम के वियोग में राजा ने अपने शाप का (जो श्रवणकुमार के अन्धे माता-पिता ने दिया था) स्मरण करते हुए प्राण त्यागकर प्रायश्चित्त कर लिया।
राजा का देहावसान हो गया, दो राजकुमार वन को चले गये और दो ननिहाल में हैं; बिना राजा के राज्य को घात लगाये शत्रु चाट जायेंगे, यह सोचकर मन्त्रियों ने भरत को बुलाने के लिए दूत भेजे । अयोध्या में आकर जब भरत को सारी स्थिति का ज्ञान हुआ तो वे माता (कैकेयी) से ही नहीं राजलक्ष्मी से भी विमुख हो गये। सेना और नागरिकों को साथ लेकर भरत राम की खोज में निकले। जहाँ राम ने लक्ष्मण और सीता के साथ डेरा डाला था उन स्थानों को देखकर आंसू बहाते हुए मुनियों से राम का मार्ग पूछ-पूछकर वे चित्रकूट पहुंचे। वहां उन्होंने राम को पिता की मृत्यु का समाचार सुनाया और अपनी राजलक्ष्मी को वापस लेने का आग्रह किया, क्योंकि ज्येष्ठ भ्राता राम के रहते हुए राज्य लेने से भरत अपने को दोषी समझ रहे थे। बहुत आग्रह करने पर भी जब राम ने पिता की आज्ञा का