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एकादशसर्ग का कथासार मेरे पिता की हत्या करने के कारण क्षत्रियों से मेरा बैर है। इक्कीस बार उनका नाश करके मैं शान्त हो गया था । आज इस धनुष को तोड़कर तुमने मुझे चुनौती दी है मानो सोये सांप को लाठी मारकर जगाया है। आजतक 'राम' इस शब्द से केवल लोग मुझे जानते थे अब इस घटना से 'राम' कहने से तुम्हें जानेंगे, जो मेरे लिए लज्जा की बात है। क्रौंचपर्वत पर प्रहार से भी कुंठित न होनेवाले परशु को धारण करते हुए मेरे लिए दो समान अपराधी हैं मेरे पिता की गाय को हरनेवाला हैहय (सहस्रार्जुन) और मेरी कीर्ति को हरनेवाले तुम । इक्कीस बार क्षत्रियों को जीतने का पराक्रम अब मुझे संतुष्ट नहीं कर सकता जब तक तुम्हें न जीत लूं, क्योंकि अग्नि की यही सार्थक तेजस्विता है कि वह जैसे जंगल को जलाती है वैसे ही समुद्र को भी। जीर्ण और पुराने शिव-धनुष को तोड़कर तू अपने को बलशाली मत समझ बैठना क्योंकि किनारे के खोखले वृक्ष को तो साधारण हवा भी गिरा देती है। मैं युद्ध नहीं चाहता। केवल मेरे इस धनुष को लेकर इसपर बाण चढ़ा दो तो मैं तुमसे हार जाऊंगा और यदि मेरे इस कठोर परशु की धार से डर गये हो तो हाथ जोड़कर अभयदान मांगो, मैं क्षमा कर दूंगा। __ भयंकर परशुराम की उस वाणी का कुछ भी उत्तर दिये बिना राम ने मुस्कराकर उनके हाथ से धनुष ले लिया। अपने पूर्वजन्म (नारायणावतार) के उस धनुष को लेकर राम अत्यन्त सुन्दर लगने लगे। क्योंकि बादल वैसे ही सुन्दर होता है, उसपर जब इन्द्रधनुष दीखे तो उसकी शोभा का क्या कहना। राम ने धनुष का एक किनारा पृथ्वी पर टेककर उसकी ज्योंही प्रत्यञ्चा खींची और उसपर बाण चढ़ाया त्योंही परशुराम का तेज क्षीण हो गया, मानो अग्नि बुझ गयी हो और धुवां मात्र रह गया हो। उस समय जनता ने, एक-दूसरे के सम्मुख खड़े बढ़ते और क्षीण होते तेज-वाले राम और परशुराम को सायंकाल के उदय होते चन्द्रमा और क्षीण होते सूर्य-जैसा देखा। मुनि को उदास और निस्तेज देखकर राम को दया आ गई । वे बोले___ आप ब्राह्मण हैं। आपसे अपमानित होने पर भी मैं आप पर प्रहार नहीं कर सकता। परन्तु मेरा चढ़ाया हुआ बाण व्यर्थ नहीं जायेगा; बोलिये, इससे आपकी गति को नष्ट करूं या आपके द्वारा यज्ञादि से अजित पुण्यों के फल को ? तब शान्त होकर ऋषि ने कहा-भगवन्, आप पुराणपुरुष हैं, यह मुझे विश्वास हो गया। आपके वैष्णव तेज को देखने के लिए ही मैंने आपको उत्तेजित किया। मैंने अपने पिता