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रघुवंशमहाकाव्य
भी जङ्गल के साधारण तपस्वी की भाँति तो मेरी देखरेख अवश्य करना। 'अच्छा' कहकर लक्ष्मण के आँखों से प्रोझल हो जाने पर वह बिछुड़ी मृगी की तरह गला फाड़कर रोने लगी। ऐसा प्रतीत होता था कि उसे देखकर जैसे सारा बन रो रहा हो।
वाल्मीकि के पाश्रम में कुश-समिधा लेने को निकले हुए वे आदिकवि वाल्मीकि रोने की ध्वनि सुनकर वहाँ पहुँचे, जिनका शोक निषाद द्वारा क्रौंच पक्षी का वध देखकर श्लोकरूप में परिणत हो गया था। उन्हें देख सीता ने प्रणाम किया। उन्होंने गर्भवती के लक्षण देखकर पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया और कहा--मैं समाधि से जान गया हूँ कि मिथ्याअपवाद से क्षुब्ध राम ने तुम्हें त्याग दिया। परन्तु घबड़ायो मत, समझो पिता के घर पहुँच गई हो । यद्यपि राम सत्यप्रतिज्ञ, विनम्र और त्रिलोक के कण्टक रावण को नष्ट करनेवाला है, फिर भी तुम्हारे प्रति ऐसे व्यवहार से मैं क्षुब्ध हूँ। तुम्हारे श्वसुर मेरे मित्र थे, तुम्हारे पिता ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, तुम पतिव्रताओं में अग्रणी हो, फिर क्यों न मैं तुमपर दया करूँ। अब निःशंक होकर इस तपोवन में रहो। यहीं तुम्हारी सन्तान के संस्कार सम्पन्न होंगे। आश्रमों से भरे इस तमसा-तीर में तुम्हारा चित्त प्रसन्न रहेगा। तुम्हारी अभीष्ट सामग्री देकर मुनिकन्याएँ तुम्हारा मन बहलायेंगी । सन्तान होने से पूर्व अपनी शक्तिभर इन आश्रम-वक्षों को सींचकर बच्चों के स्नेह को अभिव्यक्त करोगी। इस प्रकार दयालु ऋषि वाल्मीकि उसे अपने आश्रम में ले गये और सुरक्षा के लिए तापसियों को सौंप दिया। तापसियों ने हिंगोट के तेल से जलते दीपकवाली, मृगचर्म की शय्या-वाली कुटिया उसे रहने को दी। उसमें नित्य स्नान-पूजा, अतिथिसत्कार करती हुई वल्कलधारिणी सीता पति की वंश-वृद्धि के लिए अपने शरीर को धारण किये थी। "क्या सीता के इस सन्देश को सुनकर भी राम का हृदय पसीजेगा ?" इस उत्सुकता से लक्ष्मण ने सारा सन्देश राम को सुनाया जिसे सुनकर आँसू बरसाते हुए राम जड़वत् हो गये । अपवाद के भय से उन्होंने सीता को घर से तो निकाला पर चित्त से नहीं। किसी प्रकार इस शोक को सहकर बुद्धिमान् राम राज्य का पालन करने लगे। “सीता को छोड़कर राम ने दूसरा विवाह नहीं किया और उसकी सुवर्ण-प्रतिमा के साथ बैठकर यज्ञादि करते रहे"--इस समाचार को सुनकर सीता किसी प्रकार पति-परित्याग के दुखः को सह रही थी।