Book Title: Raghuvansh Mahakavya
Author(s): Kalidas Makavi, Mallinath, Dharadatta Acharya, Janardan Pandey
Publisher: Motilal Banarsidass
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पञ्चदशसर्ग का कथासार
सीता का परित्याग करने के बाद राजा राम ने केवल समुद्रमेखला पृथ्वी का ही उपभोग किया । एक बार लवणासुर से सताये हुए यमुनातटवासी तपस्वी मुनिगण रक्षा के लिए राम के पास प्राये । राम-जैसे रक्षक के रहते मुनियों ने असुर को शाप से नष्ट नहीं किया क्योंकि उससे उनका तपोबल क्षीण होता । राम ने उन्हें आश्वासन दिया । ऋषियों ने राम को बताया कि जब तक उसके हाथ में त्रिशूल रहेगा तब तक उसे कोई मार नहीं सकता, शूलरहित हुआ ही लवणासुर मारा जा सकेगा । राम ने शत्रुघ्न को लवणासुर का वध करने का आदेश दिया । बड़े भाई का आदेश पाकर वे सुगन्धित वनस्थलियों को देखते हुए रथारूढ़ होकर चल दिये और उनकी सहायता के लिए सेना भी चल पड़ी। जैसे रथ में आगे बैठे वालखिल्य ऋषि सूर्य को मार्ग दिखाते हैं ऐसे ही ये मुनिगण भी शत्रुघ्न को मार्ग दिखा रहे थे । मार्ग में उन्होंने एक रात्रि वाल्मीकि के आश्रम में विश्राम किया। मुनि ने अपने तपःप्रभाव से उनका पर्याप्त सत्कार किया । जिस रात शत्रुघ्न वाल्मीकि के श्राश्रम में टिके थे उसी रात उस आश्रम में सीता जी ने दो यमल पुत्रों को जन्म दिया ।
अग्रज राम की पुत्रोत्पत्ति के समाचार से शत्रुघ्न अत्यन्त प्रसन्न हुए और प्रात:कालमुनि से आज्ञा लेकर उन्होंने आगे प्रस्थान किया । जिस समय वे रावण की बहिन कुम्भीनसी के गर्भ से उत्पन्न उस लवणासुर के मधुपघ्न नामक नगर में पहुँचे उसी समय वह जंगलों से अपने प्रहार के लिए प्राणियों का वध करके आ रहा था। धुंएजैसे काले, चर्बी की गन्धवाली आग की लौ-जैसे भूरे बालों वाले और कच्चा मांस चबाते हुए उसे त्रिशूल से रहित देखकर शत्रुघ्न की सेना ने घेर लिया, क्योंकि जो शत्रु के छिद्रों को देखकर समय पर प्रहार करते हैं उन्हें अवश्य विजय प्राप्त होती है । राक्षस ने शत्रुघ्न को देखा । “आज मेरे लिए पेटभर भोजन न देखकर विधाता ने तुम्हें मेरे पास भेज दिया" - यह कहते हुए एक विशाल वृक्ष को आसानी से उखाड़कर उन पर फेंका । शत्रुघ्न ने बाणों से उस वृक्ष को प्रकाश में ही टुकड़े-टुकड़े कर दिया । तब राक्षस ने भीषणाकार पत्थर फेंका। उन्होंने ऐन्द्र अस्त्र से उसे भी चूर-चूर कर दिया । तब वह अपना दाहिना हाथ उठाकर पहाड़ की तरह शत्रुघ्न पर टूट पड़ा