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संस्कार करते हैं, और उपवन में ही सवकृत्य समाप्त कर अज शून्य हृदय से शोकमग्न हो अयोध्या नगरी में प्रवेश करते हैं।
उधर यज्ञदीक्षा में बैठे वसिष्ठजी ने समाधि के द्वारा अज को शोकमग्न जानकर अपने शिष्य को उनके पास भेजकर उपदेश दिया कि हे अज यह इन्दुमती हरिणी नाम की अप्सरा थी, एक समय तृणविन्दु नाम के महर्षि की तपस्या को भंग करने के लिये इन्द्र की आज्ञा से उवके आश्रम में गई थी, और तभी महर्षि ने शाप दिया कि मानुषी हो जाओ, पुनः अप्सरा की प्रार्थना से ऋषि ने कहा कि देवलोक के पुष्पदर्शन से तुम फिर अपने रूप में प्रा जानोगी। सो वह शाप देवपुष्पों की माला के दर्शन से समाप्त हो गया है, अतः वह स्वर्ग में चली गई । दूसरे मरना तो स्वाभाविक प्रकृति ध्रुव है और जीना विकार है सो वह विकार से छुटकर स्वभाव में आ गई है। इस प्रकार के मार्मिक एवं समयोचित उपदेश देकर वसिष्ठ शिष्य के लौट जाने पर किसी प्रकार आठ वर्ष रहकर कुमार दशरथ को राज्यपालन का आदेश देकर प्रज, गंगासरजू नदी के संगम में शरीर त्यागकर स्वर्ग में इन्दुमती के साथ विहार करने लगे।
नवम सर्ग अपने पिता के पश्चात् उत्तर कोसल प्रान्तों को प्राप्त करके जितेन्द्रिय दशरथ ने अच्छी प्रकार से शासन किया। उस समय मनीपियों ने देवराज इन्द्र तथा राजा दशरथ इन दोनों को हो जलवर्षा धनवर्षा कर परिश्रमियों की थकावट दूर करने वाला कहा है।
महाराज दशरथ के राज्य में न रोग था, न शत्रु से किसी के अभिभव की कल्पना थी। इस प्रकार १२ पद्यों में राज्य का तथा दिग्विजय का बड़ा ही रोचक तथा सत्य वर्णन किया गया है। इसके बाद मगध, कोसल, केकय की राजकुमारियों से राजा का विवाह होता है। मानों प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति, उत्साहशक्ति के साथ पृथिवी में अवतीर्ण इन्द्र के समान सुशोभित हुए, राजा ने अनेक यज्ञ किये । इन सबका भी कवि ने बड़ा प्रभावकारी वर्णन किया ।
इसके पश्चात् वसन्त ऋतु का आगमन होता है। महाकवि ने वसन्त वर्णन