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क्षेम प्रश्नान्तर विष्णु कहते हैं कि हे देवताओं मैं जानता हूं कि रावण ने आपके महिमा और पराक्रम को किस प्रकार आक्रान्त कर रखा है । और वह तीनों लोक को पीड़ित कर रहा है यह भी मैं जानता हूं । श्रतः मेरा तथा तुम सब लोगों का रावण को समाप्त करना एक ही कार्य है ।
किन्तु उसने तपस्या करके वर प्राप्त किया है कि 'मनुष्य को छोड़कर आठ प्रकार की देव सृष्टि से मैं न मारा जाऊ । अतः मैं दशरथ का पुत्र होकर रणभूमि में उस का शिर काटू गा । अतः हे देवताओं आपलोग शीघ्र ही राक्षसों सेनास्वादित अपने यज्ञ भाग को ग्रहण करेंगे, अब आप रावण के भय को छोड़कर निःशंक प्रकाश मार्ग में विमान से विचरण करेंगे ।
ऐसा कहकर भगवान् श्रन्तर्धान हो जाते हैं । और इन्द्रादि देवता भी सुग्रीवादि रूप से वानर योनि में जन्म लेकर भूमण्डल में विचरण करते हैं । उधर राजा के पुत्रेष्टि यज्ञ की पूर्णाहुति में अग्नि से एक दिव्य पुरुष स्वर्णपात्र में पायस चरु लेकर प्राता है । राजा दशरथ ने प्रजापत्य पुरुष से वह चरु ले लिया और कौसल्या एवं कैकेयी को वह चरु दे दिया, राजा सुमित्रा को भी चरु भाग देना चाहते थे । राजा के मन को जानते हुए उन दोनों रानियों ने अपने भाग का आधा २ सुमित्रा को दे दिया । तब इन सब ने विष्णु के अंश से गर्भ धारण किया । गर्भ धारणानन्तर इन सब रानियों को अनेक शुभ स्वप्न दीखने लगे । तब कौसल्या से राम और कैकेयी से भरत तथा सुमित्रा से लक्ष्मण शत्रुघ्न जन्म लेते हैं ।
उधर रावण के मुकुट से मणियों के बहाने मानों राक्षस की राज्यलक्ष्मी आँसू गिर पड़े। संस्कार करने पर बालक धात्री का दूध पीकर पिता के श्रानन्द के साथ बढ़ने लगे । चारों में भ्रातृस्नेह समान था फिर भी रामलक्ष्मण भरतशत्रुघ्न की जोड़ी प्रेमपूर्वक प्रसिद्ध हुई ।
इस प्रकार इन चारों पुत्रों से दैन्यों की तलवार की धार तोडने वाले देवगज की तरह, सामादि चार उपायों से नीति की तरह लम्बी २ अपनी भुजाओं से हरि की तरह राजा दशरथ देदीप्यमान हो गये ।