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जीव की परिस्पन्दन क्रिया को योग और भावात्मक पर्याय को उपयोग कहते हैं । पुद्गल की परिस्पन्दन क्रिया, स्कंध का बनना, बिगड़ना अथवा आकृति बदलना है और भावात्मक पर्याय रस-रूप आदि हैं।
पुद्गल द्रव्यात्मक पदार्थ है और जीव भावात्मक अतः है । पुद्गल की क्रिया या पर्याय को द्रव्यकर्म और जीव की क्रिया या पर्याय को भावकर्म कहते हैं।
__ भाषावर्गणा के स्कंधों से चार प्रकार की भाषा होती है। मनोवर्गणा के स्कंधो से द्रव्यमन होता है और कार्मणवर्गणा के स्कंधों से आठ प्रकार के कर्म होते हैं । १ द्रव्यलेश्या की वर्गणा का सम्बन्ध तैजस शरीर की वर्गणा से है अतः द्रव्यलेश्या और तेजस शरीर की वर्गणा का सम्बन्ध अन्यय-व्यतिरेकी माना जा सकता है ।
कार्मण वर्गणा को द्रव्यकर्म भी कहते हैं। ज्ञानावरणीयादि पुदगल का पिण्ड द्रव्यकर्म है।
औदारिक मिश्रकाययोग की स्थिति जघन्य एक समय की, उत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त की है। औदारिककाय योग की स्थिति जघन्य एक समय की है। वैक्रिय काय योग की स्थिति जघन्य एक समय है उत्कृष्ट अन्तमुहुर्त की है।
दस कल्प है १ आचेल्य, २ औदेशिक, ३ शय्यातर पिण्ड, ४ राज पिण्ड, ५ कृतिकर्म-प्रतिक्रमण के समय किया जाने वाला वंदन, ६ व्रत-चातुर्याम या पंच महाव्रत, ७ ज्येष्ठ-दीक्षा पर्याय में, ८ प्रतिक्रमण ९ शेषकाल में मासकल्प का विहार और १० पर्युषण कल्प-पावस आवास व्यवस्था-इनमें मध्यवर्ती-बाइस तीर्थंकरो के समय ३, ५, ६, ७ अनिवार्य .. शेष छह ऐच्छिक होते हैं। जबकि प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के समय सभी अनिवार्य हो गए।
द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व उसके विशेष गुण द्वारा सिद्ध होता है। अन्य द्रव्यों में न मिलने वाला गुण जिसमें मिले, वह स्वन्त्र द्रव्य है। सामान्य गुण द्रव्यों में मिले, उनसे पृथक द्रव्य की स्थापना नहीं होती। वर्ण-गंध-रस-स्पर्श पुद्गल का विशिष्ट गुण है। वह उसके सिवाय और कहीं नहीं मिलता। अतः पुद्गल स्वतंत्र द्रव्य है।
आयुष्य कर्म के पुदगल-परमाणु जीव में ऊँची-नीची, तिरछी-लम्बी और छोटी बड़ी गति की शक्ति उत्पन्न करते हैं। उसीके अनुसार जीव नए जन्म स्थान में उत्पन्न होते हैं। . गोजी गा ६०८ ।
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