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मण्डळफळम्
नेत्ररोगमतीसारं देशेऽग्निप्रबलोदयम् ॥ १४२ ॥ गवां दुग्धघृताल्पत्वं द्रुमे पुष्पफलाल्पताम् । अर्थनाशं च चौरेभ्यः स्वल्पां वृष्टिं समादिशेत ॥१४३॥ क्षुधया पीडिता लोका भिक्षाखपरधारिणः । सैन्धवा यमुनातीर - घृताटंकोजबा ल्हिकाः ॥ १४४ ॥ जालन्धराश्च काश्मीराः समस्तश्चांतरापथः । एते देशा विनश्यन्ति तस्मिन्नुत्पातदर्शने ॥ १४५ ॥
वायुमण्डलम् -
मृगादित्याश्विनीहस्ता-चित्रास्वातिसमन्विताः । उत्तराफाल्गुनी वायो-रिदं मण्डलमुच्यते ॥ १४६ ॥ यद्येषु जायते किञ्चित् पूर्वोक्तोत्पातलक्षणम् । महावातास्तदा वान्ति महद्भयमुपस्थितम् ||१४|| उन्नीता अपि पर्जन्या न मुञ्चन्ति तदा जलम् । विनाशो देवविप्राणां नृपाणां विन्ध्यवासिनाम् ॥ १४८ ॥
(२७)
अतीसार, देशमें अग्नि का विशेष लगना ॥ १४२ ॥ गायों के दूध घी की अल्पता, वृक्षों में फल फूल थोड़े, चोरों से अर्थ का नाश और थोड़ी वर्षा जाननी || १४३ ॥ लोग क्षुधा से दुःखी होकर भिक्षा और खर्पर ( खप्पड ) धारणा करने वाले हों । सिंधुदेश, यमुनाके तट के देश, घृताटकोज. बाल्हिक ॥ १४४ ॥ जालंधर, काश्मीर और समस्त उत्तर प्रदेश, इन देशों में यदि उत्पात देखने में आवे तो उनका विनाश होता है ॥ १४५ ॥ मृगशीर्ष पुनर्वसु अश्विनी हस्त चित्रा स्वाती और उत्तराफाल्गुनी ये वायु मण्डल के नक्षत्र हैं ॥ १४६ ॥ यदि इन नक्षत्रों में पूर्वोक्त कोई उत्पात हो तो महावायु चले, बड़ा भय उपस्थित हो ॥ १४७ ॥ उदय हुए भरे बादल भी जल न छोड़, देव ब्राह्मणों का विनाश हो, विन्ध्यवासी राजाओं में कलह हो ॥ १४८ ॥ परकोट किला पर्वतों के शिखर और तोरण के स्थान की
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