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शुक्रास्तफलम्
मनुष्यगणशुक्रास्ते वह्निभी रोमपत्तने ।
देशवासः कोङ्कणे च लाटे सिन्धौ तु शून्यता ॥ १३० ॥ दुर्भिक्षमुत्तरे देशे विग्रहो द्रविडाश्रये । गुर्जरे च सुभिक्षं स्याद्वनस्पतिफलोदयः ॥ १३१ ॥ मासमेकं महर्घ स्यात् ततो धान्ये समर्पता । घृततैलान्न निष्पत्तिः पट्टसूत्राणि सर्वतः ॥ १३२ ॥ राजानः सुखिनः सर्वाः प्रजा रोगविवर्जिताः । सर्वत्र वसतिर्देशे दुर्गेष्वानन्दनन्दिताः ॥१३३॥ शुक्रास्ते राक्षसगणे हिन्दूदेशेषु विग्रहः । स्वर्णरे राजयुद्धानि मिश्रदेशेऽन्नविग्रहः ॥ १३४॥ मरुस्थले सिन्धुदेशे दुर्भिक्षं मध्यमं भवेत् । असिया उडभङ्गः स्याद् गुर्जरे मुद्गलाद् भयम् ॥ १३५ ॥ यानपात्र विनाशोऽब्धौ फिरङ्गाणां च विग्रहः ।
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यदि मनुष्यगण के नक्षत्र में शुक्रका अस्त होतो रोमदेश में अनि का भय हो, कोंकण देशमें भय, तथा लाट और सिंधु देशमें शून्यता हो ॥ १३० ॥ उत्तर देशमें दुर्भिक्ष, द्रविड देशमें विग्रह, गुर्जरदेश में सुभिक्ष हो, और 'वनस्पतियों में फलफूल आवैं ॥ १३१ ॥ एक महीना अनाज तेज रहें और पीछे समभाव रहें, घी, तेल, अन्न और पट्टसूत्र ईन की विशेष उत्पत्ति हो ॥ १३२ ॥ सब राजा सुखी रहें, प्रजा रोग रहित हों, वसति (वास) देश और किला आदि सब जगह आनन्द रहें ॥ १३३ ॥
यदि शुक्र का अस्त राक्षसगण नक्षत्र में होतो हिन्दू देशमें विग्रह हो, स्वर्पर देश में राजयुद्ध हो और मिश्रदेशमें अन्नं की तंगी रहे ॥ १३४ ॥ मरुस्थल और सिंधुदेशमें सामान्य दुर्भिक्ष हो, असिया और उडदेश का भंग हो, गुर्जर देश में जंतु आदि के उपद्रव का भय हो ॥ १३५ ॥ समुद्र में जहाजों का विनाश और फिरंगियों का विग्रह हो, विराट, ढुंढ, पांचाल
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