________________
१० ]
[कर्मप्रकृति
प्रारम्भ होने पर संक्रम होने लगता है, इसलिये वह संक्रम सादि है तथा उस प्रकृति के बंधव्यवच्छेदस्थान को नहीं प्राप्त होने वाले जीव के उनका संक्रम बराबर होते रहने से वह अनादि है । अभव्य के उन प्रकृतियों का ध्रुव संक्रम है, क्योंकि उसके उन प्रकृतियों का कभी भी व्यवच्छेद नहीं होता है और भव्य के अध्रुव संक्रम होता है, क्योंकि कालान्तर में व्यवच्छेद संभव है।
___ उक्त ध्रुव सत्तावाली एक सौ तीस प्रकृतियों से शेष रही सम्यक्त्व आदि चौबीस अध्रुव सत्तावाली प्रकृतियां एवं मिथ्यात्व, वेदनीयद्विक और नीचगोत्र कुल अट्ठाईस प्रकृतियां सादि और अध्रुव संक्रम वाली जानना चाहिये। जिसका स्पष्टीकरण यह है -
अध्रुव सत्तावाली प्रकृतियों के तो अध्रुवसत्ताका होने से ही उनका संक्रम सादि और अध्रुव जानना चाहिये तथा साता-असाता वेदनीय और नीचगोत्र प्रकृतियों के परावर्तमान होने से उनके संक्रम को सादि और अध्रुव जानना चाहिये। मिथ्यात्व का संक्रम विशुद्ध सम्यग्दृष्टि के होता है और विशुद्ध सम्यग्दृष्टि कादाचित्क है। अत: उसका संक्रम भी सादि और अध्रुव होता है। अब पतद्ग्रह प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं -
मिच्छत्तजढा य परिग्गहम्मि सव्वधुवबंधपगईओ।
नेया चउव्विगप्पा, साई अधुवा य सेसाओ॥७॥ शब्दार्थ – मिच्छत्तजढा - मिथ्यात्व को छोड़कर, य - और, परिग्गहम्मि – पतद्ग्रह में, सव्वधुवबंधपगईओ - सर्वध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के, नेया – जानना चाहिये, चउव्विगप्पा - चारों विकल्प (भंग), साई - सादि, अधुवा – अध्रुव, य - और, सेसाओ - शेष प्रकृतियों के।
गाथार्थ – पतद्ग्रह में मिथ्यात्व को छोड़कर सभी ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के सादि आदि चार भंग होते हैं तथा शेष रही प्रकृतियों के सादि और अध्रुव ये दो भंग जानना चाहिये।
विशेषार्थ – मिथ्यात्व के अतिरिक्त शेष रही पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजससप्तक, वर्णादिवीस, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और अन्तरायपंचक कुल. सड़सठ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां संक्रम की अपेक्षा सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव भेद रूप चार विकल्प वाली जानना चाहिये। जिसका कारण यह है कि इन सड़सठ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की अपने-अपने बंधविच्छेद के १. (अ) सारांश यह है कि संक्रम की अपेक्षा साता-असाता वेदनीयद्विक नीचगोत्र और मिथ्यात्व मोहनीय के अतिरिक्त १२६ ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों के सादि-अनादि ध्रुव-अध्रुव ये चार भंग हैं तथा अध्रुवसत्ताका २४ और वेदनीयद्विक आदि पूर्वोक्त चार कुल २८ प्रकृतियों के सादि और अध्रुव ये दो भंग हैं। (ब) प्रकृतियों के संक्रम योग्य गुप्तस्थानों का स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये।