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संक्रमकरण ]
करने पर प्रथम स्थिति की एक समय कम दो आवलिकाओं के शेष रह जाने पर वेद अर्थात पुरुषवेद पतद्ग्रह नहीं होता है यानि उसमें अन्य किसी भी प्रकृति का कुछ भी दलिक संक्रांत नहीं होता है । यहां पर वेद पद से पुरुषवेद का ही ग्रहण जानना चाहिये, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का नहीं क्योंकि उस समय इन दोनों वेदों के बंध का अभाव होने से ही अपतद्ग्रहत्व सिद्ध है ।
मिथ्यात्व कर्म के क्षय कर देने पर सम्यग्मिथ्यात्व के और मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व के क्षय कर देने पर सम्यक्त्व प्रकृति के एवं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों की उवलना कर देने पर मिथ्यात्व की अपतद्ग्रहता बिना कहे ही जान लेना चाहिये। क्योंकि उस समय उन प्रकृतियों में कुछ भी कर्मदलिक संक्रमित नहीं होता है ।
सादि-अनादि प्ररूपणा
अब सादि, अनादि प्ररूपणा करते हैं
साइ अाई ध्रुव अधुवा य सव्वधुवसंतकम्माणं । साइअधुवा य सेसा, मिच्छावेयणीयनीएहिं ॥ ६ ॥ शब्दार्थ - साइअणाई - सादि अनादि, ध्रुव अधुवा - ध्रुव अध्रुव, य और, सव्व सभी, धुवसंतकम्माणं – ध्रुवसत्ताककर्मप्रकृतियों के, साइअधुवा - सादि अध्रुव, य शेष बाकी की, मिच्छा - मिथ्यात्व, वेयणीय - वेदनीय, नीएहिं नीच गोत्र में ।
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और, सेसा
गाथार्थ - सभी ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों के सादि अनादि ध्रुव अध्रुव ये चार भंग होते हैं तथा शेष रही प्रकृतियों एवं मिथ्यात्व मोहनीय, वेदनीयद्विक और नीचगोत्र इन चार प्रकृतियों में सादि और अध्रुव ये दो भंग होते हैं ।
विशेषार्थ सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, नरकद्विक, मनुष्यद्विक, देवद्विक, वैक्रियसप्तक आहारकसप्तक, तीर्थंकर, उच्चगोत्र एवं आयुचतुष्क ये अट्ठाईस प्रकृतियां अध्रुव सत्तावाली हैं और इनके सिवाय शेष एक सौ तीस प्रकृतियां ध्रुवसत्ताका हैं । इन ध्रुव सत्तावाली एक सौ तीस प्रकृतियों में से भी वेदनीयद्वि सातावेदनीय, असातावेदनीय नीचगोत्र और मिथ्यात्वमोहनीय इन चार प्रकृतियों सिवाय शेष रही एक सौ छब्बीस प्रकृतियों का सादि इत्यादि चारों प्रकार का संक्रम होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है।
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उपर्युक्त ध्रुवसत्तावाली प्रकृतियों का संक्रम विषयक प्रकृतिबंध व्यवच्छेद होने पर संक्रम नहीं होता है । तत्पश्चात् पुनः उन प्रकृतियों का संक्रम विषयक अपने बंध कारण के सम्पर्क से बंध