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संक्रमकरण ]
तो उपशांत हुआ भी संक्रमित किया जाता है।
इस प्रकार संक्रम का लक्षण और अपवाद जानना चाहिये। संक्रम में नियम विशेष अब अविशेषरूप से क्रम या व्युत्क्रम से प्राप्त संक्रम में नियम विशेष को बतलाते हैं -
अंतरकरणम्मि कए, चरित्तमोहे णुपुव्विसंकमणं।
अन्नत्थसेसिगाणं च सव्वहिं सव्वहा बंधे॥४॥ शब्दार्थ – अंतरकरणम्मि कए – अंतरकरण करने पर, चरित्तमोहे – चारित्रमोहनीय . में, अणुपुव्वि - आनुपूर्वी, संकमणं – संक्रमण, अन्नत्थ – अन्यत्र (अंतरकरण के सिवाय), सेसिगाणं - शेष प्रकृतियों में, च - और, सव्वहिं – सर्वअवस्थाओं में, सव्वहा – सर्व प्रकार से, बंधे – बंधकाल में।
गाथार्थ – अंतरकरण करने पर चारित्रमोहनीय में आनुपूर्वी संक्रमण होता है और अंतरकरण. के सिवाय शेषकाल में सर्व प्रकृतियों का सर्व अवस्था में सर्व प्रकार से (क्रम और उत्क्रम रूप से) बंधकाल में संक्रम होता है।
विशेषार्थ – अंतरकरण की विधि आगे उपशमनाकरण के प्रसंग में प्रतिपादित की जायेगी। वहां उपशमश्रेणी में चारित्रमोहनीय कर्म का उपशमन करने के लिये इक्कीस प्रकृतियों का और क्षपकश्रेणी में आठ मध्यम कषायों का क्षपण करने के अनन्तर तेरह प्रकृतियों का अंतरकरण करने पर चारित्रमोह में अर्थात् शेष रही पुरुषवेद और संज्वलन चतुष्क कषायों में आनुपूर्वी परिपाटी क्रम से संक्रमण होता है, किन्तु अनानुपूर्वी क्रम से नहीं होता है। शेष प्रकृतियों के बंध का अभाव होने से यहीं पर चारित्र मोहनीय का ग्रहण करने से ये पाँच ही प्रकृतियां ग्रहण की गई हैं शेष नहीं। जिसका स्पष्टीकरण यह है कि पुरुषवेद को संज्वलन क्रोधादि में ही संक्रमित करता है, अन्य प्रकृतियों में नहीं। संज्वलन क्रोध को भी संज्वलन मान आदि में ही संक्रमित करता है, किन्तु पुरुषवेद में नहीं। संज्वलन मान को भी संज्वलन माया आदि में ही संक्रमित करता है किन्तु संज्वलन क्रोधादि में नहीं। संज्वलन माया को भी संज्वलन लोभ में ही संक्रमित करता है संज्वलन मानत्रिक में नहीं।
१. निर्धारित क्रमानुसार गणना करने को आनुपूर्वी कहते हैं। २. संज्वलन लोभ का संक्रमण नहीं होता है - 'संज्वलन लोभस्त्वसंक्रान्त एव तिष्ठति।'
- कर्मप्रकृति यक्षोविजय टीका।