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मोहदुगाउगमूल - पगडीण न परोप्परंमि संकमणं । संकमबंधुदउव्वट्टणा लिगाईणकरणाई ॥ ३॥
शब्दार्थ मोदु मोहद्विक ( दर्शनमोह, चारित्रमोह), आउग
मूलपगडीण - मूल प्रकृतियों का, न नहीं, परोप्परंमि परस्पर में, संकमणं संकमबंधुदउव्वट्टणालिगाईण – संक्रम बंध, उदय, उदवर्तन आवलीगत परमाणु, अकरणाई करण के अयोग्य |
[ कर्मप्रकृति
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आयु का,
संक्रमण,
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गाथार्थ – मोहनीयद्विक आयुकर्म तथा मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता तथा संक्रमावली, बंधावली, उदयावली एवं उद्वर्तनावली आदि गत कर्मपरमाणु किसी करण के योग्य नहीं हैं ।
विशेषार्थ मोहद्विक अर्थात् दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दोनों का परस्पर में संक्रमण नहीं होता है। इसका आशय यह हुआ कि दर्शनमोहनीय कर्म चारित्रमोहनीय में और चारित्रमोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय में संक्रमित नहीं होता है । इसी प्रकार आयुकर्म के चारों भेद भी परस्पर में संक्रमित नहीं होते हैं तथा मूलकर्म (ज्ञानावरण आदि अष्ट कर्म) भी परस्पर में संक्रमित नहीं होते हैं, जैसे कि दर्शनावरण कर्म ज्ञानावरण कर्म में और ज्ञानावरण कर्म दर्शनावरण कर्म में संक्रमित नहीं होता है । इसी प्रकार सभी मूल प्रकृतियों के लिये जानना चाहिये तथा जो जीव जिस दर्शनमोहनीय प्रकृति में अवस्थित है, वह उसे अन्यत्र संक्रमित नहीं करता है । जैसे मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व का सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व का और सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व का संक्रमण नहीं करता है । इसी प्रकार सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव भी किसी भी दर्शनमोहनीय का कहीं पर भी संक्रमण नहीं करता है । क्योंकि वह अशुद्ध दृष्टि वाला है। बंध का अभाव होने पर दर्शनमोहनीय का संक्रम विशुद्ध दृष्टि वाले जीव के ही होता है, अशुद्ध दृष्टि वाले के नहीं होता है । इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि पर प्रकृति में संक्रमित किया गया दलिक आवलिका प्रमाणकाल तक उद्वर्तना आदि सकल करणों के अयोग्य जानना चाहिये तथा न केवल संक्रान्त ही अपितु बंधादि आवलिका गत पुद्गल भी सकल करणों के अयोग्य होते हैं । जैसा कि कहा है - संकमेत्यादि अर्थात् संक्रमावलिकागत, बंधावलिकागत, उदयावलिकागत, उद्वर्तनावलिकागत और आदि शब्द से दर्शनमोहनीयत्रिक रहित उपशांतमोहनीय ये सभी करणों के अयोग्य जानना चाहिये। लेकिन दर्शनत्रिक
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१. सारांश यह है कि कार्मण वर्गणा के परमाणु कर्मरूप से बंध होने पर बंध समय से एक आवलिका पर्यन्त ऐसी अवस्था वाले होते हैं कि उनका संक्रम, उदय, उदीरणा, अपवर्तना, उद्वर्तना आदि कुछ भी नहीं होता है। यही बात संक्रमावलि के लिये भी समझना चाहिये।