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अर्थात् ज्ञानावरण आदि कर्मस्वभाव से परिणत हो जाते हैं ।
प्रश्न जीव का भी तथारूप परिणाम किस कारण से होता है ?
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उत्तर
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- इसका कारण यह है कि पहले बंधा हुआ पुद्गल रूप कर्म विपाकोदय को प्राप्त होता है तो उसके निमित्त से जीव भी उसी प्रकार से अर्थात् अपने आत्मप्रदेशों में अवगाढ कर्मवर्गणाओं में समाविष्ट कर्म पुद्गल रूप हेतु से ही उस रूप से परिणत होता है । क्यों और कैसे परिणत होता है ? तो इसको बतलाते हुये गाथा में कहा है - पओगेणं इति अर्थात् प्रयोग से संक्लेश संज्ञावाले अथवा विशुद्धि संज्ञावाले वीर्यविशेष रूप प्रयोग से । इस प्रयोग के द्वारा क्या करता है ? तो कहते हैं कि विवक्षित प्रकृति से भिन्न प्रकृति प्रकृत्यन्तर को अर्थात् विवक्षित बध्यमान प्रकृति के सिवाय जो अन्य प्रकृति है, उस प्रकृति में स्थित दलिक अर्थात् कर्म पुद्गल परमाणुओं को तदनुभाव से - बध्यमान प्रकृति के स्वभाव रूप से परिणामित करता है, वह संक्रम कहलाता है । इसका आशय यह हुआ कि बध्यमान प्रकृतियों में अवध्यमान प्रकृतियों के दलिकों का प्रक्षेपण करके बध्यमान प्रकृति के रूप से उसका जो परिणमन होता है अथवा जो बध्यमान प्रकृतियों के दलिक रूप का परस्पर रूप से परिणमन होता है वह सब संक्रमण कहलाता है' बध्यमानासु प्रकृतिषु मध्येऽबध्यमान प्रकृतिदलिकं प्रक्षिप्य बध्यमानप्रकृतिरूपतया यत्तस्य परिणमनं यच्च वा बध्यमानानां प्रकृतीनां दलिकरूपस्येतरेतररूपतया परिणमनं तत्सर्व संक्रमणमित्युच्यते ।
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[ कर्मप्रकृति
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बध्यमान प्रकृतियों में अबध्यमान प्रकृतियों का संक्रम इस प्रकार होता है कि सातावेदनीय बध्यमान हो तो उसमें असातावेदनीय के दलिकों का संक्रमण होना और बध्यमान उच्च गोत्र में नीच गोत्र का संक्रम होना इत्यादि तथा बध्यमान प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण इस प्रकार होता है कि मतिज्ञानावरण के बध्यमान समय में बध्यमान ही श्रुतज्ञानावरण कर्म संक्रमित होता है अथवा बध्यमान श्रुतज्ञानावरण कर्म में बध्यमान मतिज्ञानावरण कर्म संक्रमित होता है इत्यादि ।
दुसु वेगे दिट्टिदुगं, बंधेण विणावि सुद्धदिट्ठिस्स ।
परिणाम जीसे तं, पगईए पडिग्गहो एसा ॥ २ ॥
यहाँ पर आत्मा (जीव) जिस प्रकृति के बंधक रूप से परिणत होता है उसी के अनुभाव से अन्य प्रकृति में स्थित दलिक का जो परिणमन होता है उसे संक्रम कहा गया है। लेकिन संक्रम का पूर्वोक्त लक्षण दर्शनमोहत्रिक को छोड़कर अन्य प्रकृतियों में घटित होता है क्योंकि दर्शनमोहत्रिक में बंध के बिना भी संक्रम होता है । इसी बात को स्पष्ट करने के लिये आचार्य कहते हैं.
१. उक्त कथन का सारांश यह है कि 'संक्रमणत्थगदी पर प्रकृति रूप परिणमनं संक्रमणम्' - अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाने को संक्रमण कहते हैं ।