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णमो सिद्धाणं श्रीमद् शिवशर्मसूरि विरचित कम्मपयडी (कर्मप्रकृति)
(उत्तरार्ध)
२ : संक्रमकरण पूर्वोक्त प्रकार से बंधनकरण का विवेचन किया जा चुका है। अब क्रम के अनुसार संक्रमकरण के कथन का अवसर प्राप्त है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप विषय के भेद से संक्रम के चार प्रकार हैं। जिनका विचार यथास्थान किया जायेगा। लेकिन उसके पूर्व संक्रम का सामान्य लक्षण कहते
सो संकमो त्ति वुच्चई, जं बंधणपरिणओ पओगेणं।
पगयंतरत्थदलियं, परिणमइय तयणुभावे जं॥१॥ शब्दार्थ – सो - वह, सकंमो त्ति – संक्रम, वुच्चई – कहलाता है, जं - जिस, बंधणपरिणओ – बंधक रूप से परिणमित, पओगेणं – प्रयोग से (संक्लिष्ट अथवा विशुद्ध वीर्यविशेष द्वारा ), पगयंतरत्थदलियं – अन्य प्रकृतिगत कर्मदलिक को, परिणमइय – परिणामित करे, तयणुभावे – उस रूप, जं - जिस।
___गाथार्थ – प्रयोग अर्थात् संक्लिष्ट अथवा विशुद्ध वीर्य विशेष के द्वारा जिस प्रकृति के बंधक रूप से परिणमित हुआ जीव अन्य प्रकृतिगत कर्मदलिक को तदनुरूप (उस रूप में) परिणमित करता है, वह संक्रम कहलाता है।
विशेषार्थ – जीव जिस बंधन से परिणत है अर्थात् जिस प्रकृति के बंध करने के रूप से परिणत हो रहा है। जं बंधणपरिणओ - यानि इस पद के द्वारा यह सूचित किया गया है कि यदि जीव तथारूप बंधन परिणाम से परिणत होता है तब कर्मवर्गणा रूप पुद्गल भी कर्मरूप से परिणत होते हैं अन्यथा नहीं। कहा भी है -
जीवपरिणामहेऊ कम्मत्ता पुग्गला परिणमंति।
पोग्गलकम्मनिमित्तं जीवो वि तहेव परिणमइ॥ अर्थ – जीव के परिणाम अर्थात् अध्यवसाय रूप हेतु से यानी जीव परिणाम रूप कारण का आश्रय पाकर कर्मवर्गणा के अन्तर्गत एवं जीव के आत्मप्रदेशों से अवगाढ हुये पुद्गल कर्मरूप से