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• २५ भरत बड़े आत्मज्ञानी व राज्य करते हुए भी वैरागी थे।
एक बार एक धार्मिक वक्ता ने कहा कि भरत महाराज छः खंड जैसे राज्य मे महान् आरम्भ करता है और महा आरम्भ करने वाले की गति नरक होती है । इस बात को भरत जी ने भी सुना उसको समझाने के लिये आपने एक तेल का कटोरा दिया और कहा तू मेरे कटक मे घूम आओ किन्तु इस कटोरे मे से यदि एक बूंद भी गिरी तो तुझे मृत्यु दण्ड मिलेगा। वह कटोरे को ही देखता लौट आया महाराज ने पूछा कि क्या देखा ? उसने कहा कि मैं कुछ नहीं कह सकता क्योकि मेरा ध्यान कटोरे में था। यह सुनकर भरत ने कहा कि इसी तरह मेरा ध्यान अात्मविकाश में रहता है। मैं सब कुछ करते हुए भी अलिप्त रहता हूँ । एक दिन प्रातःकाल स्नान करके एवं वस्त्राभूषण धारण करके महाराज भरत अरिसा भवन मे गये वहां एक उंगली मे से अगूठी गिर गई। बिना अगूठी के उंगली भददी लगने लगी। तब आपने विचार किया कि यह सब शोभा शरीर की नहीं किन्तु आभूषणो की है। मिथ्या मोह मे मुझे क्यो मुग्ध होना चाहिये, ऐसा सोचकर आपने अन्य उगलियो से अंगूठियाँ निकालना प्रारम्भ किया इससे हाथ विशेष भद्दा हो गया। फिर आपने सब वस्त्र और आभूपण उतार दिये । इससे आपको ज्ञात हुआ कि सब शोभा वस्त्रो और आभूषणो की है । शरीर तो असार है ऐसा विचार करते करते आप शरीर की अनित्यता का चिन्तवन करने लगे और शुक्ल ध्यान की श्रेणी तक चढ़ गये, उसी समय आप के घनघाती कमी का