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ज्ञानार्णवः
[१.४२ - 42 ) मुक्तिश्री'वक्त्रशीतांशुं द्रष्टुमुत्कण्ठिताशयैः ।
मुनिभिर्मथ्यते साक्षाद्विज्ञानमकरालयः॥४२ 43 ) उपर्युपरिसंक्रान्त दुःखवह्निक्षतं जगत् ।
वीक्ष्य सन्तः परिप्राप्ता ज्ञानवारिनिधेस्तटम् ॥४३ 44 ) अनादिकालसंलग्ना दुस्त्यजा कर्मकालिकों।
सद्यः प्रक्षीयते येन विधेयं तद्धि धीमताम् ॥४४ 42 ) मुक्तिश्रीवक्त्र-मुनिभिः ज्ञानवद्भिः साक्षात्प्रकारेण विज्ञानमकरालयः विशिष्टज्ञानसमुद्रो मथ्यते । पुनः कथंभूतैः । मुक्तिश्रीवक्त्रशीतांशुमिव श्रीमुखचन्द्रं द्रष्टुम् उत्कण्ठिताशय उत्कमानसैरित्यर्थः ।।४२।। अथ सतां ज्ञानप्राप्तिहेतुमाह।
43 ) उपर्युपरिसंक्रान्त-सन्तः सत्पुरुषा एवंभूतं जगद् वीक्ष्य ज्ञानवारिनिधेस्तटं परिप्राप्ताः । कथंभूतं जगत् । उपर्युपरि संक्रान्तः यः दुःखमेव वह्निः, तेन क्षतम् अर्थात् दग्धमित्यर्थः ॥४३।। अथ कर्मणां दुस्त्यजत्वमाह ।
___44 ) अनादिकाल-हि यस्मात् कारणात् । धीमता तद्विधेयं कर्तव्यम् । यत्तदोनित्याभिसंबन्धात् । येन कर्मकालिका सद्यः प्रक्षीयते । कथंभूता । अनादिकाल: संसर्गो यस्यां सा तथा । पुनः कथंभूता । दुस्त्यजा इति भावार्थः ।।४४।। अथ मोक्षस्वरूपमाह ।
जिन मुनियोंका मन मुक्तिरूप लक्ष्मीके मुखरूप चन्द्रको देखने के लिए उत्कण्ठित हो रहा है वे प्रत्यक्षमें विज्ञानरूप समुद्रको मथा करते हैं। विशेषार्थ-विष्णुपुराण आदि पुराणग्रन्थों में प्रसिद्ध है कि दुर्वासा ऋषिके शापसे जब स्वर्गकी लक्ष्मी नष्ट हो गयी और देव दानवोंसे पराजित हो गये थे तब विष्णु भगवान्के उपदेशानुसार देवोंने समुद्रका मन्थन किया था। उसमें से तब चन्द्र और लक्ष्मी आदि प्रगट हुए थे। इसी कथानकपर दृष्टि रखते हुए यहाँ यह कहा गया है कि मुनिजन लक्ष्मीके समान मुक्तिको प्राप्त करनेके लिए समुद्र के समान गम्भीर ज्ञानका मथन किया करते हैं-निरन्तर श्रुतका परिशीलन किया करते हैं ।।४२।।
__ यह संसार उत्तरोत्तर आक्रमणको प्राप्त दुखरूप अग्निसे सन्तप्त हो रहा है। उसकी इस अवस्थाको देखकर साधु जन ज्ञानरूप समुद्र के किनारेको प्राप्त हुए हैं। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अग्निके तापसे पीड़ित प्राणी शीतल जलाशयका आश्रय लेते हैं उसी प्रकार संसारके दुखसे सन्तप्त साधुजन ज्ञानरूप जलाशयका आश्रय लेते हैं-श्रुतका परिशीलन करके तदनुसार आचरण करते हुए उस दुखसे छुटकारा पा लेते हैं ॥४३॥
जो कर्मरूपी कालिमा जीवके साथ अनादि कालसे सम्बद्ध होकर बड़े कष्टसे छूटनेवाली है वह जिस अनुशनसे शीघ्र नष्ट की जा सकती है, बुद्धिमान् जनोंको उसीका अनुष्ठान करना चाहिए ॥१४॥
१. M LS F V JR मुक्तिस्त्री। २. LS F V C X Y R संभूत । ३. BJ संसर्गादुस्त्यजा । ४. P सलग्नां"दुस्त्यजां""कालिकां।
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