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२९. शुद्धोपयोगविचारः 1595 ) अन्तर्दृष्ट्वात्मनस्तत्त्वं बहिर्दृष्ट्वा ततस्तनुम् ।
उभयोर्भेदनिष्णातो न स्खलत्यात्मनिश्चये ।।८३ 1596 ) तर्कयेजगदुन्मत्तं प्रागुत्पन्नात्मनिश्चयः ।
पश्चाल्लोष्ठमिवाचेष्टं तद्बुढाभ्यासवासितः ।।८४ 1597 ) शरीराद्भिन्नमात्मानं शृण्वन्नपि वदन्नपि ।
तावन्न मुच्यते यावन्न भेदाभ्यासनिष्ठितः ।।८५
1595) अन्तर्दृष्ट्वा-उभयोर्भेदनिष्णातो चतुरः आत्मनिश्चये न स्खलति न पततीति सूत्रार्थः ।।८।। अथैतदेवाह ।
___1596) तर्कयेत्-प्रागुत्पन्नात्मनिश्चयः जगदुन्मत्तं तर्कयेत् वितर्कयेत् । तद् दृढाभ्यासवासितं पश्चाल्लोष्टमिवाचेष्टम् । इति सूत्रार्थः ।।८४॥अथ शरीरादात्मनो भेदमाह।
__1597) शरीरादभिन्नम्-आत्मानं शरीराद्भिन्नं शृण्वन्नपि श्रोत्रविषयीकुर्वन् । च पुनः । वदन्नपि । तस्मादपि तावन्न मुच्यते भेदाभ्यासनिष्ठितः यावन्नेति सूत्रार्थः ॥८५|| अथात्मनि आत्मभावनामाह।
विवेकी मनुष्य मलिन वस्त्रके छोड़नेमें किसी प्रकार क्लेशका अनुभव नहीं करता है, किन्तु आनन्दका ही अनुभव करता है, उसी प्रकार विवेकी अन्तरात्मा वस्त्रके ही समान ही भिन्न प्रतिभासित होनेवाले शरीरके सम्बन्धको छोड़कर निराकुल एवं अविनश्वर सुखका ही अनुभव करता है ।।८२॥
जो आत्मा और शरीर इन दोनोंके भेदमें निपुण है वह आत्माके स्वरूपको अन्तरंगमें देखकर तथा उससे भिन्न शरीरको बहिभूत देखकर आत्माके निश्चयमें स्खलित नहीं होता है-उससे विचलित न होकर उसीमें स्थिर रहता है ॥८३॥ ..
पूर्व में जिसे आत्माका निश्चय उत्पन्न हो चुका है उसे प्रारम्भकी अवस्थामें जगत् उन्मत्त (पागल ) के समान अनेक प्रकारकी चेष्टा करनेवाला प्रतीत होता है। परन्तु पश्चात् जब उसे स्थिर अभ्यासके संस्कारके आत्माका दढ निश्चय हो जाता है तब वह जगतको लोष्ठके समान निश्चेष्ट देखता है-शरीरादिको आत्मासे भिन्न व चेष्टासे रहित (जड़) समझता है ।।८४॥
प्रागी आत्माको शरीरसे भिन्न सुनता हुआ भी तथा वैसा कहता हुआ व्याख्यान करता हुआ-भी जब तक उसकी भिन्नताके अभ्यासमें निष्णात नहीं होता है तब तक वह उस शरीरके सम्बन्धसे छूट नहीं सकता है-उसे मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है ।।८५।।
१. M°दुत्पन्नं । २. All others except P M N T °मिवाचष्टे ।
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