Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 787
________________ ज्ञानार्णवः । [३९.७५2223) वाक्पथातीतमाहात्म्यमनन्तं ज्ञानवैभवम् । सिद्धात्मनां गुणग्रामं सर्वज्ञज्ञानगोचरम् ॥७५।। किं चै2224) से स्वयं यदि सर्वज्ञः सम्यग्जूते समाहितः । तथाप्येति न पर्यन्तं गुणानां परमेष्ठि नः ॥७६ 2225) त्रैलोक्यतिलकोभूतं निःशेषविषयच्युतम् । निर्द्वन्द्व नित्यमत्यक्षं स्वादिष्टं स्वस्वभावजम् ।।७७ 2226) निरौपम्पमविच्छिन्नं स देवः परमेश्वरः। तत्रैवास्ते स्थिरीभूतः पिबन् शश्वत् सुखामृतम् ।।७८ 2223) वाक्पथातीत-[ सर्वज्ञज्ञानगोचरम् । सिद्धात्मनां योगिनां गुणग्रामं गुणसमूहं सर्वज्ञ एव ज्ञातुं समर्थः । इति सूत्रार्थः ।।७५।। ] अथ परमेष्ठिनः गुणानाम् आनन्त्यम् आह । 2224) स स्वयं-कि च । यदि स्वयं सर्वज्ञः सम्यग् ब्रूते समाहितः तथापि एति न पर्यन्तम् । न एति । इति सूत्रार्थः ॥७६।। अथ पुनः आत्मस्वरूपमाह। 2225) त्रैलोक्य-कीदशं परमात्मानम। त्रैलोक्यतिलकीभतं सुगमम् । पूनः कीदशम् । निःशेषविषयच्युतं सर्वविषयभ्रष्टम् । निर्द्वन्द्वं द्वन्द्वरहितम् । नित्यं शाश्वतम् । अत्यक्ष निर्मलम् । स्वादिष्टं स्वेन आदिष्टं कथितम् । स्वस्वभावजं स्वभावजातम् । इति सूत्रार्थः ।।७७॥ अथ पुनस्तत्स्वरूपमाह। 2227) निरौपम्यम्-किं कुर्वन् । ज्ञानसुखामृतं पिबन् । कीदृशम् । निरौपम्यम् उपमाकिन्तु वह त्रिकालमें भी प्रकट नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह कि सिद्ध परमात्माके वे गुण सब ही प्राणियोंके अव्यक्त रूपमें विद्यमान हैं जो अपने पुरुषार्थसे व्यक्त भी किये जा सकते हैं, अतएव प्रत्येक आत्महितैषी जीवको अपनी उस शक्तिका परिज्ञान प्राप्त करके उन स्वाभाविक गुणोंके प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए ॥४॥ सिद्धोंके जिस गुणसमूहकी महिमा वचनों द्वारा प्रकट नहीं की जा सकती है तथा जो अनन्त ज्ञानके वैभवसे परिपूर्ण होकर एक सर्वज्ञके ज्ञानका ही विषय है-छद्मस्थका ज्ञान जिसको जाननेके लिए समर्थ नहीं है, यदि वह सर्वज्ञ भी स्वयं सावधान होकर सिद्ध परमेष्ठीके उस गुणसमूहका वर्णन भलीभाँति करना चाहे तो वह भी उन गुणोंके अन्तको नहीं पा सकता है, क्योंकि, वे अनन्त हैं और शब्द परिमित हैं ।।७५-७६।। वह सिद्ध परमात्मा तीनों लोकोंमें श्रेष्ठभूत, समस्त विषयोंके सम्बन्धसे रहित, निराकुल, अविनश्वर, इन्द्रियोंकी अपेक्षासे रहित, सुस्वादु, आत्मस्वभावसे उत्पन्न (स्वाधीन), असाधारण और व्यवधानसे वर्जित ऐसे सुखरूप अमृतका सदा पान करता हुआ-निरन्तर १. All others except PF मनन्तज्ञान, J सर्वज्ञानामगोचरम् । २. PM X Y किं च । ३. X Y सर्वज्ञसदृशः को ऽपि यदि ब्रूते । ४. Y पर्याप्तं । ५. M N T परमेष्ठिनां । ६. T सदैव । ७. L T F J स्थिरीभूय । ८. LS T F J X R ज्ञान for शश्वत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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