Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 803
________________ ७१४ ज्ञानार्णवः 1975 334 382,926 1209 741 1673 959 545 500 250 219 222 414 582 798 428 655 209 1809 1757 1710 431 2204 211 550 205 669 659 128 654 1737 216 697 दृश्यन्ते भुवि कि दृष्टश्रुतानुभूतैः दृष्टिपातो भवेत् दृष्टिमोहप्रकोपेन दृष्ट्वा श्रुत्वा देवदेवः स देवदैत्योरग देवनारकयोः देवराज्यं समासाद्य देवलोके नृलोके देवः सो ऽनन्त देवागमयति देवासुरनतं देहात्मदृङ् न दैन्यशोक दोषान् गुणेषु द्यूतकारसुरा द्रव्यक्षेत्रतथा द्रव्यभावोद्भव द्रव्यं चैकमणुं द्रव्यादिकमथ द्रव्याद्युत्कृष्ट द्वयोरनादिः द्वयोरपि समं द्वयोर्गुणर्मतं द्वादशान्तात् द्वारपालीव द्वासप्ततिः द्विगुणद्विगुणाभोगाः द्विगुणाष्टदलाम्भोजे द्विपदचतुष्पद धत्ते नरक धन्यास्ते मुनि धन्यास्ते हृदये धर्म एव समुद्ध धर्मध्यानस्य धर्मध्यानं च 2067 664 454 2131 127 2227 1280 1920 1605 1274 676 1293 125 252 2169 394 1685 412 516 2099 1347 188 2195 1773 1912 1249 212 814 धर्मनाशे क्रियाध्वंसे धर्मबुद्धयाधमैः धर्मश्चार्थश्च धर्म धर्म धर्मः शर्म धर्माधर्म धर्माधर्म (change) धर्माधमैक धर्मो गति धर्मो गुरुश्च धर्मो नरोरगाधीश धर्मो व्यसन धारयन्त्यमृतं धीर धैर्य धूमावल्य इव धूर्तकामुक ध्याता ध्यानमितः ध्याता ध्यानं तथा ध्यातारस्त्रिविधाः ध्यानतन्त्र निषिध्यन्ते ध्यानध्वंस ध्यानमेवापवर्गस्य ध्यानसिद्धिर्मता ध्यानसिद्धि ध्यानस्य च पुनः ध्यानादेव गुण ध्यानानल ध्याने ह्यपरते ध्यायेदनादि ध्येयं वस्तु ध्येयं स्याद्वीत ध्रौव्यादि ध्वजचामर न कलत्राणि न कवित्वाभिमानेन न के बन्धुत्व नगग्रामादिषु 206 642 693 648 893 287 288 1330 319 1301 1186 372 1086 1072 1058 199 1489 1911 1487 2028 450 1788 1738 19 129 1591 न चास्य भुवने न चेतः करुणा न चेदयं मां न जने न वने न तत्क्रुद्धाः न तत्रिजगती न तत्र दुःखितः न तत्र बान्धवः न तत्र सुजनः न तथा चन्दनं न तदस्ति न तदृष्टं श्रुतं न तदुःखं सुखं न दानं न च न दृश्यन्ते ऽत्र न धर्मसदृशः ननु सन्ति जीव न पश्यति तदा न पिशाचोरगाः न प्रमादजयः न मज्जति मनः नमन्ति पाद नयन्तं परम “नयन्ति विफलं नयोपनय नरकस्यैव नरकान्धमहा नरतुरगकरि नरत्वं यद्गुणोपेतं नरायुषः पाक नर्मकौतुक नवकेवललब्धि . नवनीतनिभं नवभेदं मतं नवमे प्राण न स को ऽप्यस्ति द सम्यग्गदितुं 2119 630 292 877 210 1930 1003 1629 1026 213 1450 234 1677 337 2056. 733 544 1669 623 1741 2125 2139 97 203 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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