Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 805
________________ ७१६ ज्ञानार्णवः 1214 750 275 152 271 342 1477 1761 2217 512 1724 437 106 1613 1746 695 1627 358 840 571 207 1335 1311 598 230 1422 2050 201 193 पुण्यानुष्ठानजातैः पुण्यानुष्ठानसंभूतं पुण्याशयवशात् पुत्रमित्रकलत्राणि पुनात्याकर्णितं पुरक्षोभेन्द्र पुस्तोपल पूरणे कुम्भने पूर्णा वरुणे पूर्णे पूर्वस्य पूर्वमात्मानमेव पूर्वानुभूत पूर्वाशाभिमुखः पृथक्करोति यः पृथक्त्वं तत्र पृथक्त्वे तु यदा 1460 419 1201 1389 621 704 1474 8 1956 1993 1625 495 1720 266 परमात्मा परं परमांसानि परमेष्ठी परं परमाणोः परं परवित्तामिषासक्तः परस्परप्रदेशानु परस्येव न पराधीनसुखास्वाद परिग्रहमहा परिभवफल परिस्फुरति परोषहमहा परीषहरिपु परोपरोधादपि पर्जन्यपवनार्केन्दु पर्यङ्कदेश पर्यङ्कमर्ध पर्यन्तविरसं पवनवलय पवनः प्रवेश पवित्रितधरा पवित्रीक्रियते पाकः स्वयमुपायाच्च पातयन्ति पातयामि जनं पातयित्वा महा पाताले ब्रह्म पादपङ्कज पादपीठीकृत पापाभिचार पापाशयवशात् पार्थिवी स्यात् पिण्डस्थं च पीडयत्येव पुण्यात्मनां गुण पुण्यानुष्ठानजातानि पुण्यानुष्ठान जातेषु पृथक्त्वेन 740 1465 1398 1394 933 601 1324 1084 2155 2166 2153 1559 1594 2109 400 542 635 4:38 434 1948 299 प्रत्याहृतं पुनः प्रत्येकमेकद्रव्याणि प्रत्येकं तु प्रथमे ऽहनि प्रथमे जायते प्रपश्यति यथा प्रबलध्यान प्रबोधाय विवेकाय प्रभावमस्य प्रभावलय प्रमाणनय प्रमाणीकृत्य प्रमादमदमुत्सृज्य प्रमादविषम प्रयासैः फल्गुभिः प्रवृद्धमपि प्रशमयमसमाधि प्रशमादिसमुद्भूतः प्रशस्तेतर प्रशान्तमति प्रशाम्यति विरागस्य प्रसन्नामल प्रसन्नोन्नत प्रसादयति प्रसादयितुमुधुक्तैः प्रसादः क्रियता प्रसीद जय प्रसीद शान्ति प्रसृतं बहुधा प्रस्रवन्नवभिः प्राकारपरिखा प्राकृताय न प्रागसंयम प्रागेव भावना प्रागेवालोक्य प्राङ्मया यत्कृतं प्राणस्यायमने 1115 627 1106 1666 1196 71 पृथगित्थं न पृथग्दृष्ट्वात्मनः पृथग्भावमति पृथिव्यादिविभेदेन पृष्टैरपि न प्रकुप्यति नरः प्रकृतिप्रदेशबन्धौ प्रकृत्यादिविकल्पेन प्रक्षरन्मूनि प्रचण्डपवनैः प्रच्यवन्ते ततः प्रणवयुगलस्य प्रणवाद्यस्य प्रतिक्षणं द्वन्द्व प्रतिपत्रसमासीन प्रतिसमयमुदीर्ण प्रतीकारशतेनापि प्रत्यनीके समुत्पन्ने प्रत्यहं प्रति प्रत्यासत्ति समायातः 1126 1807 566 35 1973 1830 1832 2112 1243 1747 114 1087 2049 340 276 1879 1877 120 453 158 2003 2010 294 1887 2135 103 966 2012 776 612 1797 929 1600 439 892 946 1464 792 577 843 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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