Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 789
________________ ७०० ज्ञानार्णवः 2229 ) इति जिनपतिसूत्रात्सारमुद्धृत्य किंचित् स्वमतिविभव योग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतम् । विबुधमुनिमनी पाम्भोधिचन्द्रायमाणं 3 चरतु भुवि विभूत्यै यावदद्रीन्द्रचन्द्रान् ॥८१ 2230 ) [ ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चित्ते को वेत्ति तत्त्वतः । यज्ज्ञानात्तीर्यते भव्यैर्दु स्तरो ऽपि भवार्णवः || ८१*१] इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे पण्डिताचार्य-श्रीशुभचन्द्राचार्य - विरचिते मोक्षप्रकरणम् ||३९|| 2229 ) इति जिनपति - इति अमुना प्रकारेण जिनपतिसूत्रात् सारं किंचित् उद्धृत्य स्वमतिविभवयोग्यं स्वबुद्धिश्रीप्रायोग्यं ध्यानशास्त्रं प्रणीतं कथितम् । कीदृशम् । विबुधमुनिमनीषाम्भोधिचन्द्रायमानं पण्डितमुनिमनीषासमुद्रोल्लासचन्द्रसदृशम् । भुवि पृथिव्याम् । विभूत्यै लक्ष्म्यै चरतु । यावत् अद्रीन्द्रो मेरुः चन्द्रः च यावत् तावत् । इति सूत्रार्थः ॥ ८१ ॥ [ ३९.८१ इति श्री-शुभचन्द्राचार्यंविरचिते ज्ञानार्णवे योग- प्रदीपाधिकारे पण्डितनयविलासेन साहपासा-तत्पुत्र-साहटोडर- तत्कुलकमलदिवाकर साहऋषिदास-स्वश्रवणार्थं पण्डित - जिनदासोद्यमेन कारापितं मोक्षप्रकरणं समाप्तम् ||३९|| अष्टसहस्रं संख्यातं पञ्चांकेन विराजितम् । सर्वग्रन्थप्रमाणं हि निर्णीतव्यं महाबुधैः ||१|| इति श्रीज्ञानार्णव- टीका समाप्ता ॥ ८५०० || Jain Education International इस प्रकार जिनेन्द्रके सूत्र से - जिनागमसे - कुछ सारको ग्रहण करके मैंने अपनी बुद्धिके वैभवके अनुसार इस ध्यानशास्त्र की रचना की है । वह विशेष विद्वान् मुनियों की बुद्धिरूप समुद्रको वृद्धिंगत करने के लिए चन्द्रमाके समान है। जबतक यहाँ सुमेरु, इन्द्र और चन्द्र हैं तबतक यह शास्त्र अपने वैभव के लिए इस पृथिवीपर संचार करता रहे ||१|| जिस ज्ञान के प्रभाव से भव्य जीव दुस्तर भी संसाररूप समुद्रकी महिमाको पार किया करते हैं उस ज्ञानरूप समुद्रकी महिमाको कौन अपने चित्तमें जान सकता है ? कोई नहीं जान सकता है ||८१ * १ ॥ इस प्रकार पण्डिताचार्य श्री शुभचन्द्राचार्य विरचित ज्ञानार्णव योगप्रदीपाधिकारमें पिण्डस्थध्यान प्रकरण समाप्त हुआ ||३९|| १. M N चन्द्राः, L ST J X R चन्द्र: । २. All others except PN T J read this verse after the colophon | ३. Y चित्रं for चित्ते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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