Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 715
________________ ६२६ ज्ञानार्णवः [३५.४५1957 ) अनेनैव विशुध्यन्ति जन्तवः पापपङ्किताः । अनेनैव विमुच्यन्ते भवक्लेशान्मनीषिणः ॥४५ 1958 ) असावेव जगत्यस्मिन् भव्यव्यसनबान्धवः । अमुं विहाय सत्वानां नान्यः कश्चित्कृपापरः ।।४६ 1959 ) एतव्यसनपाताले भ्रमत्संसारसागरे । । अनेनैव जगत्सर्वमुद्धृत्यं विधृतं शिवे ।। ४७ 1960 ) कृत्वा पापसहस्राणि हत्वा जन्तुशतानि च । अमुं मन्त्रं समाराध्य तिर्यञ्चो ऽपि दिवं गताः ।।४८ 1961 ) शतमष्टोत्तरं यस्य त्रिशुद्धया चिन्तयन्मुनिः । भुञ्जानो ऽपि चतुर्थस्य प्राप्नोत्यविकलं फलम् ।।४९ 1957) अनेनैव-मनीषिणः पण्डिता अनेनैव अपराजितमन्त्रेण भवक्लेशात् विमुच्यन्ते । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।४५।। अथ तस्यैव स्वरूपमाह । 1958) असावेव-असावेव मन्त्राधिराजः भव व्यसनबान्धवः संसारकष्टबान्धवः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥४६॥ अथ पुनः प्रभावमाह। 1959) एतद्वयसन-व्यसनपाताले कष्टपाताले भ्रमत्संसारसागरे । अनेनैव जगत् सर्वम् उद्धृत्य विधृतं शिवे । इति सूत्रार्थः ।।४७|| अथ पुनस्तस्य प्रभावमाह।। __1960) कृत्वा पाप-अमुं पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।४८।। अथ पुनराह। 1961) शतमष्टोतरं-अस्य मन्त्रस्याष्टोत्तरशतं विशुद्धया मनोवाक्कायशुद्धया मुनिश्चिन्तयेत् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।४९।। अथ पुनस्तदेवाह । पापरूप कीचड़से लिप्त प्राणी इसी मन्त्रके द्वारा विशुद्ध होते हैं तथा विवेकी जीव इसीके द्वारा संसारके दुःखसे छुटकारा पाते हैं-मोक्षसुखको प्राप्त करते हैं ।।४५।। इस संसारमें भव्य जीवोंकी आपत्तिमें वह मन्त्र ही बन्धुका काम करता है उन्हें उस आपत्तिसे मुक्त कराता है। इसको छोड़कर दूसरा कोई भी प्राणियोंके ऊपर दयाका भाव प्रकट करनेवाला नहीं है ।।४६।। - कष्टरूप पातालोंसे संयुक्त संसाररूप समुद्र के भीतर परिभ्रमण करते हुए प्राणीका उद्धार करके उसे यह मन्त्र ही मोक्षसुखमें स्थापित करता है ॥४७॥ हजारों पापोंको करके तथा सैकड़ों जीवोंका घात करके तियच प्राणी भी इस मन्त्रकी आराधना करके स्वर्गको प्राप्त हुए हैं ॥४८॥ मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक इस मन्त्रको एक सौ आठ बार जपनेवाला मुनि भोजन करता हुआ भी चतुर्थभक्त ( एक उपवास ) के सम्पूर्ण फलको प्राप्त होता है ॥४९।। १. M N S FX Y पापशङ्किताः । २. F J भव। ३. M N L T J कृपाकरः। ४. MN °मुद्धृतं शिवसत्पथे। ५. All others except Pत्तरं चास्य । ६. M NJ चिन्तयेन्मुनिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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