Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 755
________________ ६६६ ज्ञानार्णवः 2109) पृथग्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि । प्राप्नोति स मुनिः साक्षाद्यान्यत्वं न विद्यते ॥ ३० 2110) उक्तं च निष्कलः परमात्माहं लोकालोकावभासकः । विश्वव्यापी स्वभावस्थो विकारपरिवर्जितः || ३०* १ 2111) इति विगतविकल्पं क्षीणरागादिदोषं विदितसकलवेद्यं त्यक्त विश्वप्रपञ्चम् । शिवमजमनवद्यं विश्वलोकॅप्रदीपं परमपुरुषमुच्चैर्भावशुद्ध्या भजस्व ॥ ३१ 2109 ) पृथग्भावम् - पृथग्भावं भिन्नभावम् अतिक्रम्य । तथा ऐक्यं प्राप्नोति । कः । स : । यथा अन्यत्वं न विद्यते । इति सूत्रार्थः ||३०|| उक्तं च शास्त्रान्तरे । [ ३७.३० 2110 ) निष्कलः - [ निर्गताः कलाः अंशाः यस्मात् सः निष्कलः । विश्वव्यापी त्रैलोक्यव्यापकः । स्वभावस्थः प्रकृतिरूपेण वर्तमानः । इति सूत्रार्थः || ३० + १ || ] अथोपसंहरति । 2111 ) इति विगत - हे लोक, परमपुरुषम् उच्चैः भावशुद्धया भजस्व सेवस्व । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ||३१|| Jain Education International तब वह मुनि ( ध्याता ) भेदभावका अतिक्रमण करके - मैं व परमात्मा इस प्रकार - बुद्धिसे रहित होकर — उस परमात्मा के विषय में साक्षात् इस प्रकारकी एकता ( अभेद ) को प्राप्त होता है कि जिससे वह भेदका अनुभव ही नहीं करता है ||३०|| कहा भी है मैं पुद्गलमय शरीर से रहित, लोक वह अलोकको प्रत्यक्ष देखनेवाला, सर्वव्यापक, आत्मस्वभाव में स्थित और विकारसे रहित साक्षात् परमात्मा हूँ; इस प्रकार अभेदका प्रतिभास होता है ||३०१ || इस प्रकार रूपातीत ध्यान में समस्त विकल्पोंसे रहित, रागादि दोषोंसे विमुक्त, समस्त ज्ञेय पदार्थों का ज्ञाता, सब प्रकारकी प्रतारणासे विहीन - कृतकृत्य, आनन्दमय, अजन्मा, fasure और समस्त लोकको प्रकाशित करनेवाला अनुपम दीपक; ऐसे उस परमपुरुष परमात्माका आराधन ( ध्यान ) करना चाहिए ॥ ३१ ॥ १. SR न बुध्यते । २. J लोकः सभासकः । ३. M विगतसकल । ४. All others except PJ लोकैकनाथं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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