Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 775
________________ ६८६ ज्ञानार्णवः [३९.२९ 2176) इन्द्रचन्द्रार्कभोगीन्द्रनरामरनतक्रमः । विहरत्यवनीपृष्ठं स शीलैश्वर्यलाञ्छितः ।।२९ 2177) उन्मूलयति मिथ्यात्वं द्रव्यभावगतं भुवि । बोधयत्यपि निःशेषां भव्यराजीवमण्डलीम् ॥३० 2178) ज्ञानलक्ष्मी तपोलक्ष्मी लक्ष्मी त्रिदशयोजिताम् । आत्यन्तिकी च संप्राप्य धर्मचक्राधिपो भवेत् ।।३१ 2179) कल्याणविभवं श्रीमान् सर्वाभ्युदयसूचकम् ।। समासाद्य जगद्वन्धं त्रैलोक्याधिपतिभवेत् ।।३२ 2176) इन्द्रचन्द्रार्क-सः योगी अवनिपृष्ठं विहरति । कीदृशम् अवनिपृष्ठम् । शीलैश्वर्यलाञ्छितं चिह्नितम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥२९।। अथ पुनरपि तदाह । 2177) उन्मूलयति-द्रव्यभावगतं मिथ्यात्वं भुवम् उन्मूलयति । भव्यराजीवमण्डली भव्यकमलश्रेणी निःशेषां बोधयति । इति सूत्रार्थः ॥३०॥ अथ पुनरपि तदाह । 2178) ज्ञानलक्ष्मीम्-ज्ञानलक्ष्मी केवलज्ञानश्रियम् । तपोलक्ष्मी त्रिदशयोजितां समवशरणसंबन्धिनीम् । च पुनः । आत्यन्तिकी मोक्षलक्ष्मी संप्राप्य धर्मचक्राधिपः तीर्थकरो भवेत् । इति सूत्रार्थः ॥३१।। पुनस्तत्फलमाह । 2179) कल्याण-सर्वाभ्युदयसूचकं सर्वकल्याणदेशकम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥३२॥ अथ पुनरप्याह। उस समय उसके चरणों में इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, धरणेन्द्र तथा मनुष्य व अन्य सब देव नमस्कार करते हैं। तब वह अठारह हजार शीलोंके अधिपतित्वसे लक्षित होकर इस पृथिवीतलपर विहार करता है ।।२९|| इस प्रकार विहार करता हुआ वह द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकारके मिथ्यात्वको निर्मूल करके समस्त भव्य जीवरूप कमलोंके समूहको प्रबोधित करता है ॥३०॥ वह अविनश्वर ज्ञानरूप लक्ष्मी, तपरूप लक्ष्मी और देवोंके द्वारा रची गयी समवसरणादिरूप लक्ष्मीको भी प्राप्त करके धर्मचक्रका स्वामी-तीर्थकर केवली-हो जाता है ॥३१।। उपर्युक्त अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारकी लक्ष्मीसे संयुक्त होता हुआ वह समस्त . अभिवृद्धिको सूचित करनेवाले और लोकसे वन्दनीय ऐसे कल्याण विभवको-केवलकल्याणककी महिमाको-प्राप्त करके तीनों लोकोंका स्वामी हो जाता है ।।३२।। १.J योगीन्द्र । २.SY R भावमलं विभुः, F गतं विभः। ३.ST X Y R निःशेषं । ४. LS F XR मण्डलम् । ५. N समास्वाद्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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