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३९. शुक्लध्यानफलम्
2188 ) तदा स सर्वगः सार्वः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः । विश्वव्यापी' विभुर्भर्ता विश्वमूर्तिर्महेश्वरः ॥ ४० 2189) लोकपूरणमासाद्य करोति ध्यानवीर्यतः । आयुः समानि कर्माणि भुक्तिमानीय तत्क्षणे ॥४१
2188) तदा सः - तदा तस्मिन् काले । स परमेष्ठी सवंगः । ज्ञानापेक्षया अस्खलितगतित्वात् । पुनः कीदृशः । सर्वेभ्यो हितः सार्वः । सर्वज्ञः इति सुगमम् । सर्वत्र संमुखः । पुनः कीदृशः । सर्वव्यापी । विभुः व्यापकः । भर्ता स्वामी । विश्वमूर्तिः महेश्वरः विशेषणद्वयं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ अथ पुनराह ।
2189) लोकपूरणम् - तत्क्षणे तत्प्रस्तावे कर्माणि आयुः समानि आयुः प्रमाणानि करोति । किं कृत्वा । लोकपूरणम् । दण्डकपाटप्रतरैरासाद्य प्राप्य । पुनः किं कृत्वा । भुक्तिमानीय । कस्मात् । ध्यानवीर्यंतः ध्यानबलात् । इति सूत्रार्थः ॥ ४१॥ अथ पुनस्तत्स्वरूपमाह ।
आत्मप्रदेशों के फैलने का नाम समुद्घात है । केवली भगवान् के जब आयु कर्मकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहती है, किन्तु वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन अघातिया कर्मों की स्थिति उस आयुकी स्थिति से अधिक रहती है तब उनकी इस स्थितिको समान करने के लिए जो उक्त केवलिके आत्मप्रदेश ऊपर, नीचे और तिरछे रूपमें फैलते हैं, इसे केवलिसमुद्घात कहा जाता है । वह दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणके भेदसे चार प्रकारका है । उनमें मूल शरीर के बाहुल्यसे ( कायोत्सर्गकी अपेक्षा ) अथवा उससे तिगुणे बाहल्य से ( पद्मासनकी अपेक्षा ) दण्डके आकार में विस्तारकी अपेक्षा तिगुणी परिधियुक्त जो आत्मप्रदेश फैलते हैं उसका नाम दण्डसमुद्घात है । इस दण्डसमुद्घातमें उन आत्मप्रदेशोंकी लम्बाई कुछ कम चौदह राजु मात्र होती है । जिस प्रकार कपाट मोटाई में कम होकर भी विस्तार और लम्बाई में अधिक होता है उसी प्रकार मूल शरीरकी मोटाई में अथवा उससे तिगुणी मोटाई में रहकर कुछ कम चौदह राजु लम्बे और सात राजु विस्तृत जो आत्मप्रदेश फैलते हैं वह कपाटसमुद्घात कहलाता है । उक्त आत्मप्रदेशोंका वातवलयोंसे रोके गये क्षेत्रको छोड़कर अन्यत्र सब ही लोकमें जो विस्तार होता है उसका नाम प्रतरसमुद्घात है । इसका दूसरा नाम मन्थसमुद्घात भी है जो सार्थक है । कारण कि इस अवस्थामें उन अघातिया कर्मोंकी स्थिति और अनुभागका मथन किया जाता है । तत्पश्चात् उक्त जीवप्रदेशका वातवलयरुद्ध क्षेत्र में भी जो प्रवेश होता है, यह लोकपूरण समुद्घात कहा जाता है । केवलिसमुद्घातकी इन चार अवस्थाओं में एक-एक समय के क्रमसे चार समय लगते हैं । इसके पश्चात् जिस क्रमसे
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आत्मप्रदेशों का विस्तार होता है उसी क्रमसे - लोकपूरणसे प्रतरादिके क्रमसे- वे आगे के चार समयों में संकुचित होकर मूल शरीरमें अवस्थित हो जाते हैं । इस प्रकार केवलिसमुद्घातसे चार अघातिया कर्मों की स्थितिको समान करके अर्हन्त परमात्मा सूक्ष्मकाययोगसे तृतीय सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यानको ध्याते हैं ||३९||
इस प्रकार लोकपूरणसमुद्घातको प्राप्त होकर उस समय सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वतो -
१. N तदा सर्वगतः सार्वः, T स तदा । २. T J सर्वव्यापी ।
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