Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 771
________________ ६८२ ज्ञानार्णवः 2159 ) अर्थादिषु यथा ध्यानी संक्रामत्यविलम्बितम् | पुनर्व्यावर्तते तेन प्रकारेण स हि स्वयम् ||१७ 2160 ) त्रियोगी पूर्वविद्यस्मादिदं ध्यायत्यसौ मुनिः । सवितर्क सवीचारं सपृथक्त्वमतो मतम् ॥ १८ 2161) अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामर्थ्यात् स प्रशान्तधीः । मोहमुन्मूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे ॥१९ 2162) उक्तं च इदमत्र तु तात्पर्यं श्रुतस्कन्धमहार्णवात् । अर्थमेकं समादाय ध्यायन्नर्थान्तरं व्रजेत् ।। १९ १ 2159 ) अर्थादिषु - यथा ध्यानी अर्थादिषु अविलम्बितं संक्रामति । हि निश्चितम् । तेन प्रकारेण पुनः स्वयं व्यावर्तते । इति सूत्रार्थः || १७|| अथ पुनर्विशेषमाह । [ ३९.१७ 2160) त्रियोगी - यस्मात् इदं ध्यायति पूर्ववित् त्रियोगी असौ योगत्रययुक्तः । अतः कारणात् सवितर्क सवीचारं सपृथक्त्वं मतम् । इति सूत्रार्थः || १८ || [ पुनस्तदेवाह । ] 2161 ) अस्याचिन्त्य – सः प्रशान्तधीः उपशमितबुद्धिः अस्य अचिन्त्यप्रभावस्य सामर्थ्यात् मोहम् उन्मूलयति क्षपयति । एवम् अमुना प्रकारेण । अथवा क्षणे उपशमयति । इति सूत्रार्थः || १९|| उक्तं च शास्त्रान्तरे । (2162 ) इदमत्र तु - एकम् अर्थं समादाय गृहीत्वा ध्यायन् अर्थान्तरं व्रजेत् । इति सूत्रार्थः । पूर्वार्धं सुगमम् || १९* १ || अथ पुनस्तदेवाह । दूसरे योगका तथा एक पर्यायसे दूसरी पर्यायका आलम्बन लेता हुआ एक द्रव्यपरमाणुसे अन्य द्रव्यपरमाणुका चिन्तन करता है ।। १६*१।। Jain Education International योगी पृथक्त्ववितर्क ध्यान में जिस प्रकारसे अर्थ, व्यंजन और योगोंके विषयमें शीघ्रता से संक्रमण करता है उसी प्रकारसे वह स्वयं फिरसे लौटता है ॥१७॥ चूँकि इस पृथक्त्ववितर्कका ध्यान तीनों योगोंवाला योगी करता है, अतएव वह वितर्क से सहित, वीचारसे सहित और पृथक्त्व से सहित माना गया है ॥ १८ ॥ अचिन्त्य प्रभाववाले इस ध्यानके बलसे व अतिशय शान्त बुद्धिसे युक्त योगी क्षणभर में मोहको या तो नष्ट ही करता है या फिर उसे उपशान्त करता है ||१९|| कहा भी है यहाँ तात्पर्य तो यह है कि समस्त आगमरूप समुद्रसे एक अर्थको ग्रहण करके उसका ध्यान करता हुआ पृथक्त्ववितर्क ध्यानी उक्त अर्थको छोड़कर पुनः अन्य अर्थको प्राप्त होता १. LSJXYR विद्यः स्यादिदं । २. N सवितर्कमतः । ३. Only in P For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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