Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 713
________________ ६२४ ज्ञानार्णवः [३५.३७1949 ) महातत्त्वं महाबीजं महामन्त्रं महत्पदम् । शरच्चन्द्रनिभं ध्यानी कुम्भकेनैव' चिन्तयेत् ॥३७ 1950 ) सान्द्रसिन्दूरवर्णाभं यदि वा विद्रमप्रभम् ।। चिन्त्यमानं जगत्सर्व क्षोभयत्यपि संगतम् ।।३४ 1951 ) जाम्बूनदनिभं स्तम्भे विद्वेषे कज्जलत्विपम् । ध्येयं वश्यादिके रक्तं चन्द्राभं कर्मशातने ॥३९।। उ । 1952 ) गुरुपञ्चनमस्कारलक्षणं मन्त्रमूर्जितम् । विचिन्तयं जगज्जन्तुपवित्रीकरणक्षमम् ।।४० 1949) महातत्त्वम्-[ ध्यानी कुम्भकेनैव चिन्तयेत् । किम् । महामन्त्रम् । कीदृशम् । महातत्त्वं, महाबीजं, महत्पदम् । पुनः कीदृशम् । शरच्चन्द्रतुल्यम्। शेषं सुगमम् ।।३७||] पुनस्तत्स्वरूपमाह। ___1950) सान्द्रसिन्दूर-जगत् क्षोभयति । अतिसंगतं व्याप्तम् । सिन्दूरवर्णाभं सघनसिन्दूरसदृशं चिन्त्यमानम् । यदि वा विद्रुमप्रभं प्रवालकान्ति चिन्त्यमानम् । इति सूत्रार्थः ॥३८॥ अथ विशेषमाह। 1951) जाम्बूनद-स्तम्भे स्तम्भने जाम्बूनदनिभं स्वर्णसदृशं ध्येयम् । विद्वेषे द्वेषकरणे कज्जलीत्विषं कज्जलकान्ति । वश्यादिके रक्तं ध्येयम् । कर्मनाशने चन्द्राभं चन्द्रनिर्मलं लक्ष्यम् । इति सूत्रार्थः ॥३९॥ सर्वत्र गम्यम् । । अथ पुनराह। 1952) गुरुपञ्च-पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारलक्षणं मन्त्रम् ऊर्जितं बलवन्तं चिन्तयेत् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।४०।। अथ तस्य विशेषमाह । मन्त्र स्वरूप महान पद (ओं) का योगीको कुम्भक रूपसे श्वासको निश्चल करके-ध्यान करना चाहिए ॥३५-३७॥ ___ यदि उस प्रणवका चिन्तन सघन सिन्दूर जैसे वर्णसे संयुक्त और मूंगा जैसी कान्तिसे परिपूर्णके रूपमें किया जाता है तो वह सम्मिलित जगत्को-समस्त लोकको भी क्षब्ध कर देता है ॥३८॥ ध्याताको स्तम्भन कार्यमें कीलित करनेके लिए-सुवर्णके समान पीतवर्ण, वैरभावमें कज्जलके समान कृष्णवर्ण, वशीकरण आदिमें रक्तवर्ण और कर्मकी निर्जरार्थ चन्द्रके समान धवल वर्णके रूपमें उसका चिन्तन करना चाहिए ॥३९।। पाँचों परमेष्ठियोंको नमस्कार करने रूप लक्षणसे संयुक्त व जगत्के प्राणियोंके पवित्र करनेमें समर्थ, ऐसे उस तेजस्वी मन्त्रका ध्यान करना चाहिए ॥४०॥ १. All others except P M N केन विचिन्त । २. T adds ओं। ३. M N LJY °यत्यतिसं', TX R त्यभिसं। ४. T adds हूँ। ५. J कर्मनाशनं । ६. P ओं। ७. M N TJ पञ्चगुरुनम । ८. M N LJ x चिन्तयेच्च जग, SF Y R विचिन्तयेज्जग, T चिन्तयेत्त जग।. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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