Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 717
________________ ६२८ : ज्ञानार्णवः [३५.५३२१1966 ) [ वर्णयुग्मं श्रुतस्कन्धसारभूतं शिवप्रदम् । ध्यायेजन्मोद्भवाशेषक्लेशविध्वंसनक्षमम् ॥५३*१॥सिद्धः ।।] 1967 ) अवर्णस्य सहस्रार्ध जपन्नानन्दसंभृतः । प्रामोत्येकोपवासस्य निर्जरां निर्जिताशयः ।।५४ ॥३।। 1968 ) एतद्धि कथितं शास्त्रे रुचिमात्रप्रसाधकम् । किन्त्वमीषां फलं सम्यक् स्वर्गमोक्षकलक्षणम् ।।५५ 1969 ) पञ्चवर्णमयी विद्यां पञ्चतत्त्वोपलक्षिताम् । मुनिवीरैः श्रुतस्काधाबीजबुद्धया समुद्धृताम् ।।५६ "ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं ह्रः असि आ उ सा नमः । 1966) वर्णयुग्मम्-जन्मोद्भवो अशेषः सर्वक्लेशः तस्य विध्वंसने क्षमं समर्थं यत् तत् तथा शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।५३-१॥ अरहंतसिद्ध । _1967) अवर्णस्य-अवर्णस्य सहस्रार्धं पञ्चशती जपेत् । योगी कीदृशः । निजिताशयः जितचित्तः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।५४|| अथ पुनस्तदेवाह। . __1968) एतद्धि-हि निश्चितम् । एतच्छास्त्रे रुचिमात्रप्रसाधकं कथितम् । किन्तु अमीषां वर्णानां सम्यक् फलं स्वर्गमोक्षकलक्षणं भवति । इति सूत्रार्थः ।।५५॥ अथ पुनस्तत्स्वरूपमाह । ___1969) पञ्चवर्ण-पञ्चतत्त्वोपलक्षिताम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥५६।। ओं ह्रां ह्रीं [हूं ] ह्रौं ह्रः । अ सि आ उ सा नमः । अथ पुनस्तदेवाह । -- जो दो अक्षरोंका मन्त्र (सिद्ध) आगमसमूहका सारभूत,, मोक्षको प्रदान करनेवाला । और संसार-परिभ्रमणसे उत्पन्न होनेवाले समस्त कष्टोंके नष्ट करने में समर्थ है उसका ध्यान करना चाहिए ॥५३५१।। जो योगी चित्तको वशमें करके आनन्दसे परिपूर्ण होता हुआ अवर्ण ( अ ) का पाँच सौ ( ५००) बार जप करता है वह एक उपवासरूप तपके द्वारा होनेवाली कर्मनिर्जराको प्राप्त होता है ॥५४॥ शास्त्र में जो इन मन्त्रोंका उपवासरूप फल बतलाया गया है वह उनकी ओर रुचि मात्रको सिद्ध करनेवाला है। उनका फल तो वस्तुतः समीचीन स्वर्ग व मोक्ष स्वरूप ही है॥५५॥ पाँच तत्त्वोंसे उपलक्षित जिस पाँच वर्णरूप विद्याका श्रेष्ठ मुनिजनोंने—गणधरोंने बारह अंगरूप श्रुतस्कन्धसे बीजबुद्धिके वंश उद्धार किया है उस पाँच वर्गरूप विद्याका'ॐ ह्रां ह्रीं हूँ. हौ हः अ सि आ उ सा नमः' इस मन्त्रका-ध्यान करना चाहिए ॥५६।। १. PS T F x om. । २. M reads सिद्धः। ३. Only in P M L। ४. Only in PM | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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