Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 739
________________ ६५० ज्ञानार्णवः. [३६.२२2050) पवित्रितधरापृष्ठं समुद्धृतजगत्त्रयम् । मोक्षमार्गप्रणेतारमनन्तं पुण्यशासनम् ॥१८ 2051) भामण्डलनिरुद्धार्क चन्द्रकोटिसमप्रभम् । शरण्यं सर्वगं शान्तं दिव्यवाणीविशारदम् ।।१९ 2052) अक्षोरगशकुन्तेशं सर्वाभ्युदयमन्दिरम् । - दुःखार्णवपतत्सत्त्वदत्तहस्तावलम्बनम् ।।२० 2053) मृगेन्द्र विष्टरारूढं मारमातङ्गघातकम् । *इन्दुत्रयसमोदामच्छत्रत्रयविराजितम् ॥२१ 2054) हंसालीपातलीलाढ्यचामरव्रजवीजितम् । वीततृष्णं विशां नाथं वरदं विश्वरूपिणम् ॥२२ ___2050) पवित्रित-पुनः कीदृशम् । पवित्रितधरापृष्ठं पृथ्वीपीठम् । किं कृत्वा। जगत्त्रयं समुद्धृत्य । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१८॥ अथ पुनः कीदृशम् । 2051) भामण्डल–भामण्डलेन निरुद्धः अर्कः येन सः, तम्। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥१९|| पुनः कीदृशम् । आह । 2052) अक्षोरग-अक्षाण्येव उरगाः, तत्र शकुन्तेशं गरुडम् । पुनः कीदृशम् । सर्वाभ्युदयमन्दिरं सर्वकल्याणगेहम् । दुःखार्णवे दुःखसमुद्रे पतन्तः ये सत्त्वाः, तेषां दत्तहस्तावलम्बनम् । इति सूत्रार्थः ॥२०॥ पुनः कीदृशं तदाह । 2053) मृगेन्द्र-इन्दुत्रयसमोद्दामछत्रत्रयविराजितं चन्द्रत्रयसमोत्कटछत्रत्रयविराजितम् । इति सूत्रार्थः ॥२१॥ अथ पुनराह। "2054) हंसालीपात-हंसानाम् आली श्रेणिः, तस्याः पातः, तस्य लीला, तया आढये , पूर्णे, तद्वच्चामरे, तयोः ब्रजः समूहः, तस्य वीजितम् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥२२॥ [पुनस्तदेवाह।] है, जो लोकका स्वामी है, गुणरूप रत्नोंका विशाल समुद्र है, जिसने पृथिवीतलको पवित्र करके तीनों लोकोंके प्राणियोंका उद्धार किया है, जो मोक्षमार्गका नेता है, जो अनन्त काल तक रहनेवाला ( अविनश्वर ) है, जिसका शासन ( तीर्थ ) पवित्र है, जिसने अपने प्रभामण्डलसे सूर्यको तिरस्कृत कर दिया है, जो करोड़ों चन्द्रोंकी प्रभाके समान प्रभावाला है, प्राणियोंका रक्षक है, सर्वव्यापक है, शान्त है, दिव्य उपदेशमें निपुण है, इन्द्रियरूप सॉके लिए गरुड़ पक्षीके समान है, समस्त अभ्युदय ( अभिवृद्धि )का स्थान है, दुखरूप समुद्र में. डूबते हुए प्राणियोंको हाथका अवलम्बन देनेवाला है, सिंहासनपर विराजमान है, कामरूप हाथीका घातक है, तीन चन्द्रोंके समान प्रखर तीन छत्रोंसे विभूषित है, हंसपंक्तिके गिरनेकी १. N जगत्पृष्ठधरापृष्ठं । २. All others except P NJ निरुद्धार्कचन्द्र। ३. M N यक्षोरग । ४. M N विधुत्रय । ५. M लीलार्घ्य । ६. All others except P जगन्नाथं । Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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