Book Title: Gyanarnav
Author(s): Shubhachandra Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 723
________________ ज्ञानार्णवः [३५.७६1989 ) ततः संवत्सरं साग्रं तथैवाभ्यस्यते यदि । प्रपश्यति महाज्वालां निःसरन्तीं मुखोदरात् ॥७६ 1990 ) ततो ऽतिजातसंवेगो निर्वेदालम्बितो वशी। __ध्यायन् पश्यत्यविश्रान्तं सर्वज्ञमुखपङ्कजम् ॥७७ 1991 ) अथाप्रतिहतानन्दप्रीणितात्मा जितश्रमः । श्रीमत्सर्वज्ञदेवं स प्रत्यक्षमिव वीक्षते ॥७८ 1992 ) सर्वातिशयसंपूर्ण दिव्यरूपोपलक्षितम् ।। कल्याणमहिमोपेतं सर्वसत्त्वाभयप्रदम् ॥७९ 1993 ) प्रभावलयमध्यस्थं भव्यराजीवरञ्जकम् । ज्ञानलीलाधरं धीरं देवदेवं स्वयंभुवम् ॥८. 1989) ततः संवत्सरं-यदि संवत्सरं यावत् तथैव अभ्यसते , अभ्यासं करोति, ततः मुखोदरात् निःसरन्ती महाज्वालां प्रपश्यति, इति सूत्रार्थः ॥७६॥ ततोऽपि विशेषमाह। 1990) ततोऽतिजात-ततः वशी संयमी सर्वज्ञमुखपङ्कजं पश्यति । किं कुर्वन् । अविश्रान्तं ध्यायन् । इति सूत्रार्थः ।।७७||] अथ पुनस्तदेवाह । 1991) अथाप्रतिहत-अथेति तदनन्तरम् । अप्रतिहतानन्दप्रीणितात्मा अस्खलितप्रमोदप्रीतात्मा। जितश्रमः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ।।७८॥ पुनः कीदृशं तम् आह । __1992) सर्वातिशय-[दिव्यरूपेण उपलक्षितं युक्तम् । सर्वसत्त्वाभयप्रदं सर्वप्राणिनामभयप्रदम् । इति सूत्रार्थः ।।७९।। ] पुनस्तस्यैव प्रभावमाह । 1993) प्रभावलय-भव्यराजीवरञ्जकं भव्यप्राणिकमलरञ्जकम् । इति सूत्रार्थः ॥८०॥ अथ ततो विशेषमाह। तत्पश्चात् योगी यदि उसी प्रकारसे उसका अभ्यास सालभरसे कुछ अधिक समय तक करता है तो वह मुखके भीतरसे निकलती हुई महाज्वालाको देखता है ॥७६॥ तत्पश्चात् आविर्भूत हुए अतिशय धर्मानुरागसे संयुक्त जितेन्द्रिय योगी वैराग्यका आश्रय लेता हुआ उक्त महामन्त्रके ध्यानसे निरन्तर सर्वज्ञके मुखरूप कमलका दर्शन करता है ॥७७|| .. तत्पश्चात् जिसकी आत्मा निर्बाध आनन्दसे अतिशय प्रसन्नताको प्राप्त हुई है, तथा जिसने परिश्रमजनित खेदपर विजय प्राप्त कर ली है ऐसा वह योगी लक्ष्मीसे परिपूर्ण उस सर्वज्ञ प्रभुका प्रत्यक्षमें ही दर्शन करता है ॥७८॥ _उस समय उसे वह सर्वज्ञ प्रभु सम्पूर्ण (३४) अतिशयोंसे परिपूर्ण, दिव्य स्वरूपसे सहित, केवलकल्याणकी महिमा (समवसरणादि) से संयुक्त, समस्त जीवोंको अभय प्रदान करता हुआ-दिव्य वाणीके द्वारा उपदेश देता हुआ, भामण्डलके मध्यमें स्थित, भव्य १. All others excert P°त्सरं यावत्तथैव । २. s FJX R वीरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828