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ज्ञानार्णवः
[२९.९३1605 ) देहात्मदृग न मुच्येत चेजागर्ति पठत्यपि ।।
सुप्तोन्मत्तो ऽपि मुच्येत स्वस्मिन्नुत्पन्ननिश्चयः ॥९३ 1606 ) आत्मानं सिद्धमाराध्य प्राप्नोत्यात्मापि सिद्धताम् ।
वर्तिः प्रदीपमासाद्य यथाभ्येति प्रदीपताम् ।।९४ 1607 ) आराध्यात्मानमेवात्मा परमात्मत्वमश्नुते ।।
यथा भवति वृक्षः स्वं स्वेनोघृष्य हुताशनः ॥९५ 1608 ) इत्थं वाग्गोचरातीतं भावयन् परमेष्ठिनम् ।
आसादयति तद्यस्मान्न भूयो विनिवर्तते ॥९६ _1605) देहात्मदृक्-देहात्मदृक् शरीरमेवात्मदृक् न मुच्येत भवबन्धनात् चेज्जागति पठत्यपि। तहि स्वप्नोन्मत्तो ऽपि मुच्येत । स्वस्मिन् उत्पन्ननिश्चयः। इति सूत्रार्थः ।।१३।। अथ पुनरपि एतदेवाह।
___1606) आत्मानम्-वतिः प्रदीपमासाद्य प्राप्याभ्येति गच्छति । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥९४|| अथात्मनः परमात्मत्वमाह ।
1607) आराध्य-आत्मात्मानमाराध्य परमात्मत्वमश्नुते प्राप्नोति । यथा वृक्षः कश्चित् स्वेन स्वमुद्देष्य हुताशनो ऽग्निर्भवति । इति सूत्रार्थः ॥९५॥ अथ पुनरेतदेवाह ।
1608) इत्थं वाक्-यस्मात् कारणाद्भूयो विनिवर्तते। इति सूत्रार्थः । शेषं सुगमम् ।।९६॥ अथ पुनरात्मस्वरूपमाह । को पृथक न जाननेवाला बहिरात्मा केवल सोते समय, मूच्छित अवस्थामें, नशेकी अवस्था में
और पागलपन आदिकी अवस्थामें ही भ्रान्तिकी कल्पना करता है तथा शेष सब ही अवस्थाओंको वह भ्रान्तिसे रहित मानता है। परन्तु अन्तरात्माको किसी भी अवस्थामें भ्रान्ति नहीं होती-वह सोते समय व मूर्छा आदिकी अवस्थामें भी आत्मज्ञानसे रहित नहीं होता, किन्तु सदा ही प्रबुद्ध रहता है ॥२२॥
शरीरमें आत्माको देखनेवाला बहिरात्मा चाहे जागता हो और चाहे पढ़ता भी होआगमका अभ्यासी भी हो तो भी वह मुक्त नहीं हो सकता है। परन्तु जिस अन्तरात्माको शरीरसे भिन्न अपनेमें ही आत्माका निश्चय उत्पन्न हो चुका है वह यदि सोया हुआ या उन्मादयुक्त भी हो तो भी वह मुक्तिको प्राप्त कर लेता है ।।१३।।
जीव सिद्धात्माकी आराधना करके स्वयं अपनेको भी सिद्धात्मा बना लेता है, जिस प्रकार कि बत्ती दीपकको पाकर स्वयं भी दीपकस्वरूप बन जाती है ॥१४॥
जिस प्रकार वृक्ष (अरणि ) अपना अपने साथ ही घर्षण करके अग्नि बन जाता है उसी प्रकार जीव अपना ही आराधन करके परमात्मा बन जाता है ॥९५।।
परमात्माका चिन्तन करनेवाला प्राणी उस पदको१. Y सुप्तो मत्तो ऽपि । २. M N इत्थं तं वाक्पथातीतं ।
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